मानव जीवन की चार अवस्थाओं में से ब्रह्मचर्य आश्रम जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु के काल को कहा जाता है। यही जीवन विद्यार्थी जीवन भी है। प्राचीन काल में विद्यार्थी को गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करना पड़ता था।
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विद्यार्थी शब्द दो शब्द के मेल से बना है- विद्या + अर्थी। जिसका अर्थ है विद्या प्राप्ति की इच्छुक। जीवन के प्रारंभिक काल का लक्ष्य विद्या प्राप्ति है, यह जीवन का स्वर्णिम काल कहा जाता है।
जिस प्रकार सुदृढ़ भवन निर्माण में कार्यरत कारीगर सावधानीपूर्वक नींव का निर्माण करता है, उसी प्रकार मानव जीवन रूपी भवन के सुदृढ़ निर्माण के लिए विद्यार्थी जीवन का सुव्यवस्थित होना नितांत आवश्यक है। सरल, छलरहित, उत्साहयुक्त आशावादी लहरों में उमंगपूर्ण तरंगित होता यह काल उसके भविष्य को निर्धारित करता है। इसी अवस्था में शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है। शिक्षा द्वारा जीवन लक्ष्यों का निर्धारण होता है।
सफल विद्यार्थी इसी काल में सामाजिक, धार्मिक नैतिक नियमों, आदर्शों व संस्कारों को ग्रहण करता है लेकिन आजकल गुरुकुलशिक्षा प्रणाली नहीं है। आज का विद्यार्थी विद्यालयों में विद्याध्ययन करता है। आज गुरुओं में कठोर अनुशासन का अभाव है। आज शिक्षा का संबंध धने से जोड़ा जाता है। विद्यार्थी यह समझता है कि वह धन देकर विद्या प्राप्त कर रहा है।
उसमें गुरुओं के प्रति आदर के भाव की कमी पाई जाती है। साथ ही कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों का भी अभाव हो गया है। शिक्षा में नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। इसका उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना रह गया है। इन्हीं कारणों से आज का विद्यार्थी अनुशासनहीन, फैशन का दीवाना, पश्चिमी सभ्यता का अनुनायी तथा भारतीय संस्कृति से दूर हो गया है। आदर्श विद्यार्थी के गुणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि-
काक चेष्टा बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृह त्यागी विद्यार्थिनः पंच लक्षणं ।।
अर्थात् विद्यार्थी को कौए के समान चेष्टावान व जिज्ञासु होना चाहिए। विद्यार्थी को बगुले के समान ध्यान लगाकर अध्ययन में रत रहना चाहिए। उसे कुत्ते की भाँति सोते हुए भी जागरूक रहना चाहिए। इसके लिए उन्हें कुसंगति से बचना चाहिए तथा आलस्य का परित्याग करके विद्यार्थी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
आज के विद्यार्थी वर्ग की दुर्दशा के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति भी जिम्मेदार है। अतः उसमें परिवर्तन आवश्यक है। इसलिए विद्यार्थियों में विनयशीलता, संयम, आज्ञाकारिता जैसे गुणों का विकास किया जाना चाहिए। विद्यार्थी को स्वयं भी इन गुणों के विकास के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अत: शिक्षाविदों का दायित्व है कि वे देश की भावी पीढ़ी को अच्छे संस्कार देकर उन्हें प्रबुद्ध तथा कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाएँ।