ऋषभ चतुर्वेदी
क्यों हैं स्वामी विवेकानंद युवाओं के प्रेरणा स्तोत्र ? वो भगवा पहनते है इसलिए ? या उनके नाम के आगे स्वामी जी लगा है सिर्फ़ इसलिए ? कहते है कि एक किताब एक इंसान की सच्ची मित्र होती है और सच में ऐसा है भी क्योंकि जब आप बहुत क्रोध में हो या दुखी हो और तब एक किताब हाथ में आ जाए तो शायद आप कुछ पढ़ पाओं या नहीं पर हाँ... वो आप के मन को शान्त अवश्य कर देती हैं और रोक देती है आप को कुछ भी ऐसा करने से जिससे आपको आगे जाकर पछताना पड़े, क्योंकि यूं तो इस दुनिया में ऐसे हजारों तरीके हैं जिनसे आप अपने गुस्से को शान्त कर सकते है पर उन सब से आपकी बुद्धि और मानवता का पतन होता है या फिर आप किसी नयी यात्रा पर निकल जाते हो लेकिन अगर किताब हमारे हाथ में हो तो हमारे सभी भाव शान्त हो जाते है और हमें मौका मिलता है एक बार फिर से उलझे हुए विचारों को सुलझाने का, और यह देखने का की अब तक के सफर में हम जो समझ रहे है अंतिम सत्य वही है या वास्तविकता तो कुछ और ही थी, और हमारे स्वामी जी ये तो खुद ऐसी सैकड़ौ किताबों का भंडार यानी अपने आप में एक संपूर्ण पुस्तकालय (Library) थे और ये नास्तिक थे,
बचपन में कभी इन्होंने भगवान को नहीं माना जब भी घर का कोई बड़ा या संत इनके भगवान के लिए कहते तो इनका बस 2 ही सवाल होते कि
1). क्या आपने भगवान को देखा है ? 2). क्या आप मुझे उनसे मिलवा सकते है ?
पर किसी के पास इनके इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं होता था पर एक दिन जब रामकृष्ण परमहंस इनसे मिले तब उन्होंने कहा कि हाँ मेनें देखा है भगवान को और में तुम्हें उनसे मिलवा भी सकता हूँ तभी रामकृष्ण ने ध्यान करते हुए अपने पाँव का अगूंठा विवेकानंद के स्पर्श कराया और उन्हें लगा कि स्वामी जी ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया. और बचपन का नरेंद्र बड़ा होकर स्वामी विवेकानंद कहलाया
बल ऐसा कि :- एक बार ट्रेन में सफर करते समय जब इनके सादा वस्त्रों को देखकर दो विदेशीयों ने इनका मजाक उड़ाया तब यह चुपचाप हसते रहे, तभी टीटी के आने पर उसे टिकट दिखाते हुए इंग्लिश में ही बात करने लगे उन्होंने पूछा कि आपको इंग्लिश आती है क्या, बोले हाँ तो...तो फिर आपने हमें मजाक उढ़ाने पर रोका क्यों नहीं तो बोले कि में मूर्खो की बात का बुरा नहीं मानता यह सुनते ही वो दोनो दोनों आदमी इन्हें मारने दौड़े और स्वामी जी ने बहुत आसानी से दोनों की गर्दनें मरोड़ दी और हँसते हुए बोले में अगर मूर्खो की बात का बुरा नहीं मानता तो मारने आने पर उन्हें छोड़ता भी नहीं ॥
बुद्धि ऐसी की :- स्कूल में आखिरी बेंच पर बैठकर जब मजाक कर रहे तो टीचर ने पकड़ा और पूछा कि बोर्ड पर क्या पढ़ायातब इन्होंने कक्षा में अब तक जो भी पढ़ाया गया था वो सब बता दिया टीचर हैरान थे कि यह लड़़का सबसे पीछे बैठा था, फिर भी इसे आगे वालो से भी ज्यादा पता है ।
ईश्वर भक्ति :- ईश्वर के लिए स्वामी विवेकानंद जी के बारे में यह कहा जाता है कि उनके मन में अटूट भक्ति भाव जाग चुका था और वे अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के सांनिध्य मे रहते हुए ही अपनी साधनाओं में आगे बढ़ने लगे एक दिन जब रामकृष्ण जी ने कहा कि जाओ जाकर हमारी अराध्य माँ महाकाली से अपने लिए वरदान मांगों, तब अपने गुरू की आज्ञा पाकर यह माता महाकाली के मंदिर में गये जहाँ इनके गुरूदेव माताजी की पूजा किया करते थे. वहाँ इन्होंने जाकर प्रणाम किया और वरदान माँगा कि हे माँ आप मुझे वरदान में ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दीजिए और उसके बाद वह दो बार और माताजी के मंदिर में गये और वहाँ जाकर इन्होंने माँ से अपने लिए वरदान में पुन दोबारा वही माँगा कि हे माँ आप मुझे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य दीजिए
परिवार से प्रेम :- स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् 1920) को कलकत्ता में एक कायस्थपरिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया, किन्तु उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। दुर्गाचरण दत्ता, (नरेंद्र के दादा) संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान थे उन्होंने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और एक साधु बन गए। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं।
प्रारंभिक शिक्षा :- सन् 1871 में, आठ वर्ष की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे विद्यालय गए। 1877 में परिवार के साथ रायपुर चले गये। 1879 में कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये थे।
गुरू के प्रति भक्ति :- एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।
जीवन की विशेष घटना :- स्वामी विवेकानंद जी ने अमेरिका स्थित शिकागो में सन 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। और यह इनके जीवन की विशेष घटनाओं में से एक था जब इन्होनें वहाँ सम्बोधन करते हुए जनता से कहा कि आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं तथा समस्त भारतवासियों की ओर से भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
विवेकानंद जी का समाधी लेना :- जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा एक और विवेकानन्द चाहिये यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है। उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की गई है।