रूपरेखा–
- शिक्षा का अर्थ,
- शिक्षा की भूमिका,
- शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता,
- शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम,
- शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण–
- (क) शिक्षा का उद्देश्य,
- (ख) मौलिकता का अभाव,
- (ग) साहित्य और कला का अभाव,
- (घ) आर्थिक असुरक्षा,
- (ङ) शारीरिक श्रम का अभाव,
- (च) नैतिक मूल्यों का अभाव,
- (छ) शिक्षकों की भूमिका,
- (ज) अभिभावकों की भूमिका,
- (झ) भौतिकता का समावेश
“तुम्हारी शिक्षा सर्वथा बेकार है, यदि उसका निर्माण सत्य एवं पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है। यदि तुम अपने जीवन की पवित्रता के बारे में सजग नहीं हुए तो सब व्यर्थ है। भले ही तुम महान् विद्वान् ही क्यों न हो जाओ।”
–महात्मा गांधी : टूद स्टूडेण्टस्
शिक्षा का अर्थ–
शिक्षा का वास्तविक अर्थ है–मनुष्य का सर्वांगीण विकास। मात्र पुस्तकीय ज्ञान अथवा साक्षरता शिक्षा नहीं है। यह तो शिक्षारूपी महल तक पहुँचने का एक सोपानभर है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी के अनुसार–“शिक्षा हमारी अन्तःशक्तियों का विकास है।” स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में–”मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।”
महात्मा गांधी का विचार है–“शिक्षा से मेरा अभिप्रायः बालक या मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क या आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्तम विकास से है।” वास्तव में श्रेष्ठ शिक्षा वही है, जो मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के साथ–साथ उसमें जीवन मूल्यों की भी स्थापना करे और फिर उसका सर्वांगीण उन्नयन करे।
शिक्षा की भूमिका–शिक्षा किसी भी देश के विकास के लिए आवश्यक तत्त्वों में से एक मुख्य तत्त्व है। एक शिक्षित समाज ही देश को उन्नत और समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षाविहीन मनुष्य को साक्षात् पशु के समान बताया गया है। संस्कृत के महाकवि श्री भर्तृहरि ने कहा है–“साहित्य–संगीत–कलाविहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छ–विषाणहीनः।”
हमारे प्राचीन ऋषि–मुनियों ने भी शिक्षा की भूमिका के विषय में कहा है–“सा विद्या या विमुक्तये।’ अर्थात् विद्या (शिक्षा) वह है, जो मनुष्य को अज्ञान से मुक्त करती है। वैदिक मन्त्रों में भी शिक्षा की भूमिका को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है–”असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमया” अर्थात् विद्या या शिक्षा सत्य, ज्ञान और अमरता प्रदान करती है।
प्राचीनकाल से ही जब हमारी शिक्षा की भूमिका और उद्देश्य इतना स्पष्ट रहा है, तब क्या कारण है कि वर्तमान में शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है। आज बौद्धिक स्तर पर भले ही शैक्षिक विकास हो रहा हो, परन्तु संवेदना और जीवन–मूल्यों का हास आज की शिक्षा पद्धति में स्पष्ट लक्षित होता है।
शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता–भारतीय संस्कृति ने सदैव नैतिक मूल्यों की अवधारणा पर बल दिया है। नैतिकता के अभाव में पशुता और मनुष्यता का भेद समाप्त हो जाता है। इसलिए वेदों, उपनिषदों एवं अन्य सभी धार्मिक ग्रन्थों में शिक्षा में नैतिकता की अनिवार्यता स्वीकार की गई है। इसलिए कहा गया है-
“वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वत्ततस्तु हतो हतः।”
अर्थात् चरित्रहीन व्यक्ति मृतक समान है, इसलिए चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। अतएव शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश अवश्य होना चाहिए। अन्यत्र भी कहा गया है––
“येषां न विद्या न तपो न दानम्,
ज्ञानम् न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता।
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥”
अर्थात् जिसके पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, चरित्र जैसे गुण और धर्म नहीं हैं, वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है और मनुष्य के रूप में पशु की भाँति विचरण करता है। शिक्षा में मूल्यों की आवश्यकता के इतने स्पष्ट दृष्टिकोण के पश्चात् भी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मूल्यगत शिक्षा की आवश्यकता नहीं समझी जा रही है। वह शिक्षा, जो आत्म–विकास एवं जीवन और समाज में सन्तुलन बनाए रखने में उपयोगी है, उसे ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया है।
शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर से यहाँ एक आशय यह भी है कि आज हमारी शिक्षा केवल सैद्धान्तिक है, व्यावहारिक नहीं। आज शिक्षा एक छात्र को केवल डिग्री प्रदान करती है, उसे सम्मानजनक रूप से आजीविका कमाने के लिए उसका कोई मार्गदर्शन नहीं करती है। अर्थात् उसके लिए उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं होता। शिक्षा के इसी मूल्यगत स्तर के कारण आज देश में बेरोजगारी और अपराधों को प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम–शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम आज समाज में चहुँ ओर देखे जा रहे हैं। देशभर में फैले भ्रष्टाचार, लूटमार, आगजनी, राहजनी, बलात्कार एवं अन्य अपराध गिरते मूल्यगत स्तर के ही परिणाम हैं। वर्तमान में जीवन–मूल्यों की बात करनेवाले उपहास का पात्र बनते हैं। हमारी वर्तमान पीढ़ी शिक्षित होते हुए भी जिस अनैतिक मार्ग पर बढ़ रही है, उसे देखते हुए भावी पीढ़ियों के स्वरूप की कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं।
शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण वर्तमान शिक्षा–प्रणाली में गिरते मूल्यगत स्तर के अनेक कारण हैं, जिनमें से मुख्य कारण इस प्रकार हैं-
(क) शिक्षा का उद्देश्य–वस्तुत: शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का चहुँमुखी विकास करना है, जो अब साक्षर बनाना मात्र रह गया है। आधुनिक शिक्षा–प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करनेवाली प्रणाली बन गई है, वह व्यक्ति को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान नहीं कराती।
(ख) मौलिकता का अभाव–आधुनिक शिक्षा प्रणाली में मौलिकता का अभाव है, जिससे उसका स्तर दिन–प्रतिदिन गिरता जा रहा है। स्वतन्त्रता के सात दशकों के पश्चात् भी कोई सरकार एक उत्तम शिक्षा नीति का निर्माण नहीं कर पाई है। शिक्षा में होते अवमूल्यन को रोकने के लिए जो परिवर्तन किए गए हैं, वह शिक्षा के स्तर को सुधारने में पर्याप्त नहीं हैं। हाँ, उसमें इतना सुधार अवश्य आ गया है कि उसमें विद्यार्थियों को अच्छे अंक प्राप्त हो रहे हैं।
(ग) साहित्य और कला का अभाव–आज तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। हम अपने साहित्य, सभ्यता और संस्कृति को भूलकर विदेशी संस्कृति और साहित्य के पीछे दौड़ रहे हैं। इससे युवाओं का बौद्धिक और अनर्गल तार्किक स्तर तो बढ़ रहा है, परन्तु जीवन–मूल्यों का स्तर दिन–प्रतिदिन गिरता जा रहा है।
(घ) आर्थिक असुरक्षा–शिक्षा के रोजगारपरक न होने के कारण समाज के आर्थिक विकास में आई गिरावट भी शिक्षा के गिरते स्तर के लिए उत्तरदायी है। आधुनिक शिक्षा–प्रणाली के चलते प्रतिवर्ष लाखों युवा हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट, बी०ए०, एम०ए, बी०एड० आदि की डिग्रियाँ लेकर स्कूल–कॉलेजों से निकलते हैं, पर इन शिक्षित युवाओं का कोई सुरक्षित भविष्य नहीं है। ये स्वायत्तशासी संस्थानों में अल्पवेतन पर अकुशल श्रमिकों के रूप में कार्य करते हुए जीवनभर कुण्ठाग्रस्त रहते हैं और कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति से किसी प्रकार की नैतिकता की आशा नहीं की जा सकती।
(ङ) शारीरिक श्रम का अभाव–आधुनिक शिक्षा–प्रणाली और बढ़ती दूरसंचार सुविधाओं ने आज के विद्यार्थी को निकम्मा और परावलम्बी बना दिया है। फलत: शिक्षित वर्ग की दशा दयनीय होती जा रही है। इस सन्दर्भ में यह व्यंग्य द्रष्टव्य है-
“न पढ़ते तो सौ तरह से खाते कमाते, मगर खो गए वह तालीम पाकर।
न जंगल में रेवड़ चराने के काबिल, न बाजार में बोझ ढोने के काबिल॥”
(च) नैतिक मूल्यों का अभाव–शिक्षा के गिरते स्तर में सुधार लाने हेतु नैतिक मूल्यों का समावेश होना अत्यावश्यक है; क्योंकि कोई भी कार्य बिना किसी सुस्पष्ट नीति के सम्भव नहीं है। नीति से ही नैतिक शब्द बना है जिसका अर्थ है सोच–समझकर बनाए गए नियम या सिद्धान्त। लेकिन आज की शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश न होने के कारण अशिष्टता, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार तथा अराजकता आदि निरन्तर बढ़ रही हैं।
(छ) शिक्षकों की भूमिका–शिक्षा में योग्य एवं समर्पित शिक्षक की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। इसीलिए शिक्षक सदैव पूजनीय रहा है, लेकिन आज शिक्षक अपनी भूमिका का उचित निर्वाह नहीं कर रहा है। वह शिक्षण को मात्र आजीविका का साधन मान रहा है। वह यह भूल बैठा है कि उसे देश के भविष्य का निर्माण करना है।
(ज) अभिभावकों की भूमिका शिक्षा के मूल्यगत गिरते स्तर में अभिभावकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। पहले अभिभावक शिक्षक को भगवान् से भी अधिक सम्मान देते थे और बच्चों को भी यही शिक्षा देते थे, लेकिन आज शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को डाँट देने पर भी अभिभावक शिक्षक के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, जिससे छात्रों में उद्दण्डता आदि अनेक दुर्गुणों का विकास अनायास ही हो जाता है।
(झ) भौतिकता का समावेश आधुनिक शिक्षा प्रणाली में भौतिकता का पूरी तरह समावेश हो गया है; फलतः शिक्षा अत्यन्त खर्चीली हो गई है। साधारण परिवार महँगी शिक्षा वहन नहीं कर पाते और छात्र कुण्ठा, हताशा, बेरोजगारी, लक्ष्यहीनता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। साधन–सम्पन्न व्यक्ति अयोग्य छात्रों को भी उच्चपदों पर नियुक्त करा देते हैं, उनका उद्देश्य केवल अर्थार्जन होता है, देश और समाज का विकास नहीं।
इस प्रकार शिक्षा का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है, जिसके लिए हम सभी को अत्यन्त सजग होने की आवश्यकता है।
उपसंहार–
इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा में मूल्यों का ह्रास होने के कारण देश–समाज में असन्तोष का वातावरण व्याप्त हो रहा है। समाज और देश के लिए ज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है; क्योंकि शिक्षित राष्ट्र ही अपने भविष्य को सँवारने में सक्षम हो सकता है। राष्ट्र की भौतिक दशा सुधारने के लिए जीवन–मूल्यों का उपयोग कर हा उन्नति की सही राह चुन सकते हैं।
इसके लिए शिक्षकों को भी अपनी भूमिका को कबीर के निम्न दोहे के अनुसार निभाना होगा, तभी शिक्षा का मूल्यगत गिरता स्तर ऊँचा उठ सकेगा-
“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है,
गढ़ि–गढ़ि काढ़े खोट,
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहिर बाहै चोट॥”