मीराबाई - मीराबाई का जीवन परिचय
Mirabai - Mirabai ka Jivan Parichay
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
इस संसार में जो कुछ भी व्याप्त है। वह सब किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से जुड़ा है। युगों-युगों से सब कुछ बदला। ये संसार, प्रकृति, मानव, पशु-पक्षी, संस्कृति इत्यादि। अगर कम शब्दों में कहा जाए। तो प्रेम के सफ़र से ही दुनिया चल रही है। प्रेम के बिना, सब कुछ खत्म हो जाएगा।
प्रेम की ही डोर से ब्रह्मा बंधे, शिव बंधे, विष्णु बंधे, राम बंधे और कृष्ण बंधे। इस संसार का हर एक प्राणी बंधा है। लेकिन प्रेम की अद्भुत लीलाओं और परिभाषाओं को श्री कृष्ण ने समझाया। वैसे तो कृष्ण की दीवानी पूरी दुनिया है। लेकिन सबसे ज्यादा कृष्ण को राधा ने प्रेम किया। हर एक स्त्री राधा बनना चाहती है।
राधा के अलावा भी एक स्त्री थी। जो कृष्ण की बहुत दीवानी थी। जिसने कृष्ण के प्रेम में परिवार, सुख, आकांक्षाएं यहां तक की अपना शरीर तक त्याग दिया था। छोटी सी उम्र में ऐसा क्या, उसकी मां ने कह दिया। कि वह फिर कभी संसार से नहीं जुड़ पाई। क्यों वृंदावन के एक महान महात्मा, उसकी बात सुनकर दौड़े चले आए। उनके कदमों में गिर गए।
कुछ भक्तों के चरित्र इतने अद्भुत होते हैं। कि उनके नाममात्र से ही परम आनंद की लहरें हिलोरे भरने लगती हैं। पूरा तन व मन रोमांचित हो उठता है। ईश्वर के प्रति विश्वास को नया बल मिलता है। ऐसी ही भगवान श्री कृष्ण की परम भक्त हुई – मीराबाई जी।
भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्तों में से, मीराबाई एक थी। उनका प्रेम भगवान श्री कृष्ण के लिए, बहुत ही अनमोल था। मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत थी। जिनका सब कुछ भगवान कृष्ण के लिए समर्पित था। युगों-युगांतर से लेकर, आज तक लोग, मीराबाई के कृष्ण प्रेम का बखान करते हैं।
मीराबाई का कृष्ण के प्रति प्रेम ऐसा था। कि वह उन्हें अपना पति मान बैठी थी। मीराबाई के बालमन में ही, कृष्ण की ऐसी छवि बसी हुई थी। उन्होंने किशोरावस्था से लेकर मृत्यु तक, कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना।
मीराबाई – एक परिचय | |
वास्तविक नाम | मीराबाई |
अन्य नाम | • पेमल (बचपन का नाम) • मीरा • मीराबाई |
जन्म-तिथि | सन 1498 ईस्वी |
जन्म-स्थान | कुडकी ग्राम, मेड़ता, राजस्थान |
पिता | रतन सिंह राठौर |
माता | वीर कुमारी |
दादाजी | राव दूदा |
पति | राणा भोजराज सिंह (मेवाड़ के राणा सांगा के पुत्र) |
प्रसिद्धि | • कृष्ण भक्त • संत • गायिका • कवियत्री |
गुरु | संत रैदास ( रविदास) |
उपाधि | • राजस्थान की राधा • मरुस्थल की मंदाकिनी (सुमित्रानंदन पंत के द्वारा) |
रचनाएं | • मीरा पदावली • नरसी जी का मायरा • राग गोविंदा • गीत गोविंद का टीका • राग सोरठ के पद • मीराबाई की मलार • राग बिहाग |
भाषा | ब्रजभाषा |
प्रमुख रस | विप्रलंभ श्रंगार |
काव्यगत विशेषताएं | • भक्ति भावना • विरह भावना • रहस्यानुभूति • गीति-तत्व की प्रधानता |
जयंती | शरद पूर्णिमा |
मृत्यु-तिथि | सन 1547 ईस्वी |
मृत्यु-स्थान | रणछोड़ मंदिर डाकोर, द्वारका, गुजरात |
मीराबाई का जन्म
मीराबाई का जन्म सन 1498 में ईस्वी में, राजस्थान में मेड़ता के कुडकी ग्राम में हुआ था। वहीं कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि इनका जन्म बाजोली में हुआ था। यह रतन सिंह की पुत्री और मेड़ता नरेश राव दूदा की पौत्री थी। मेड़ता उस समय राजस्थान का एक स्वतंत्र और शक्तिशाली राज्य था। इनके पिता राव दूदा के छोटे बेटों में से एक थे। इसलिए वह मेड़ता में, केवल 12 छोटे शहरों और ग्रामों के सरदार थे।
मीराबाई के जीवन पर अनेकों विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। द्वापर युग में राधा कृष्ण की प्रेयसी रही। वही मीराबाई इस कलयुग में, भगवान श्री कृष्ण की पत्नी कहलाती है। संत-महात्माओं का मानना है कि मीराबाई श्री कृष्ण के समय की एक गोपी थी। कई लेखों में राधा और मीरा का वर्णन एक जैसा किया गया है।
मीराबाई छोटी-सी उम्र में, श्री कृष्ण को अपना पति मान बैठी थी। इसके पीछे भी एक कहानी है। एक बार मीराबाई अपनी मां के साथ बारात देख रही थी। दूल्हे को देखकर, अपनी मां से पूछ बैठी। मां मेरा दूल्हा कहां है। उस वक्त मां को कुछ नहीं सुझा। तो मीरा को तसल्ली देने के लिए, कृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करके कहा। यही तुम्हारे दूल्हा हैं। यह बात मीराबाई के दिल में घर कर गई।
मीराबाई की शिक्षा-दीक्षा
मीराबाई जब छोटी थी। तभी इनकी मां की मृत्यु हो गई। इसलिए राव दूदा, इन्हें मेड़ता ले आए। उन्होंने अपनी देखरेख में, इनका पालन-पोषण किया। राव दूदा एक योद्धा होने के साथ-साथ, भक्त ह्रदय व्यक्ति भी थे। जिस कारण साधु-महात्मा, उनके महल में आते-जाते रहते थे। इसलिए मीराबाई बचपन में ही धार्मिक व्यक्तियों के संपर्क में आती रही।
मीराबाई का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर हो गया। उस समय के राजवंशों की परंपरा के अनुसार, इनको वेद-पुराण आदि धर्म ग्रंथों का ज्ञान मिला। इसके साथ ही संगीत, कताई व सिलाई की शिक्षा भी मिली। इसके अतिरिक्त उन्हें तीर-तलवार आदि शस्त्र चालन और घुड़सवारी की भी शिक्षा मिली।
इस प्रकार मीराबाई जी को घरेलू व पारिवारिक कार्य के साथ ही, युद्धकाल में सत्र संचालन की विद्या भी प्राप्त हो गई। धर्म ग्रंथों के अध्ययन से, इन्हें एक उदार दृष्टिकोण प्राप्त हुआ। वही शस्त्र संचालन की शिक्षा ने, इन्हें साहस और दृढ़ निश्चय प्रदान किया। यह मृदुभाषी और सहृदय थी। जन्म से ही इनकी आवाज मीठी व सरस थी। यह भी कहा जाता कि इन गुणों के साथ-साथ, यह बेहद आकर्षक और रूपवती भी थी।
मीराबाई का विवाह
मीराबाई जी के अद्वितीय रूप और गुणों की चर्चा सुनकर। मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने अपने जेष्ठ पुत्र युवराज भोजराज के लिए, उनके दादा राव दूदा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। सगाई धूमधाम से की गई।
लेकिन दुर्भाग्यवश राव दूदा विवाह तक जीवित नहीं रह सके। सगाई के कुछ ही महीनों के अंदर ही, उनकी मृत्यु हो गई। जिसका मीराबाई पर गहरा आघात हुआ। तब मीराबाई के चाचा राव वीरमदेव ने, इनका विवाह सन 1516 में बड़े उत्साह और धूमधाम से किया। इस समय मीराबाई की उम्र 18 वर्ष की थी।
मीराबाई के पति युवराज भोजराज एक सुंदर व प्रभावशाली व्यक्ति थे। जो कई युद्धों में, अपनी वीरता के लिए यश प्राप्त कर चुके थे। इनका दांपत्य जीवन सुखी था। ससुराल में इनको समुचित आदर और स्नेह भी मिला। लेकिन यह सारे सुख अल्पकालीन ही रहे।
मीराबाई में मानसिक विरक्ति भावना
विवाह के लगभग 10 वर्ष के पश्चात, सन 1526 में हुए युद्ध में, युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई के लिए, यह एक मार्मिक आघात था। राणा सांगा ने उन्हें मेवाड़ की रानी बनाने के लिए चुना था। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। पति की मृत्यु के 6 महीने बाद ही, मीराबाई को दो और सदमे पहुंचे।
1527 में खानवा की लड़ाई में राणा सांगा की ओर से बाबर से लड़ते हुए। इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। राणा सांगा जिन्होंने उनके जीवन में, दादा राव दूदा स्थान ले लिया था। वह भी बुरी तरह घायल हो गए। फिर कुछ महीनों बाद ही षड्यंत्रकारी सामंतो ने, उन्हें जहर देकर मार दिया।
एक के बाद एक होने वाली घटनाओं ने, मीराबाई को बहुत आघात पहुंचाया। तब उनकी स्वाभाविक भक्ति भावना जागृत हो उठी। उनका झुकाव अंतर्मन की ओर होने लगा। उनके कुछ पदों में मानसिक विरक्ति भावना प्रकट होती है।
कौन करे जंजाल, जग में जीवन थोड़ो।
झूठी रे काया, झूठी रे माया, झूठों सब संसार।।
अपने बचपन और युवावस्था में मीराबाई, भगवान श्रीकृष्ण की उपासिका थी। उनकी यह भक्ति व प्रेम, गहरा और परिपक्व होने लगा। अब उनके लिए श्री कृष्ण कोई अवतार न रहकर, अविनाशी प्रभु परमपिता परमात्मा से अभिन्न हो गए।
मीराबाई को गुरु की प्राप्ति
मीराबाई के जीवन में एक ऐसी घटना हुई। जिसने उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण को बिल्कुल बदल दिया। वे संत रविदास (रैदास) के संपर्क में आई। जो आजीविका के लिए जूते गाँठने का काम करते थे। मीराबाई ने उनसे ‘सूरत शब्द योग’ की दीक्षा प्राप्त की।
अपने गुरु की कृपा से, उनकी जन्मजात भक्ति भावना को एक नई दिशा मिली। उनका प्रभु प्रेम, एक निजी अनुभव के रूप में साकार हो उठा। बहिर्मुखी क्रियाएं, पूजा-पाठ आदि जो बचपन से, उनके जीवन के अभिन्न अंग थे। वे धीरे-धीरे उनके लिए महत्वहीन होने लगे।
मनुष्य जन्म के असली उद्देश्य, शुरू प्रभु प्राप्ति के लिए, मीराबाई ने भक्ति के मार्ग को पूरी लगन के साथ अपना लिया। अपने अभ्यास के द्वारा, उन्हें आंतरिक अनुभव प्राप्त हुए। जिसके फलस्वरूप, उनका विश्वास दृढ़ होता गया। उनका मन और उनकी आत्मा, प्रेम के कभी न छूटने वाले रंग में रंग गई।
मीराबाई की परीक्षाओं व विपत्तियों का दौर
भक्ति और प्रेम के इस विकास के साथ ही, मीराबाई के जीवन में परीक्षाओं और विपत्तियों का दौर भी शुरू हो गया। परंपरा और परिपाटियों के विरुद्ध, उनकी प्रभु-भक्ति, उनका आचरण, साधु-संतों के साथ निरंतर उठना बैठना। अपने गुरु संत रविदास की भक्ति और बंदना ने, पंडितों-पुरोहितों और चित्तौड़ राजदरबार के कट्टरपंथियों के क्रोध को भड़का दिया।
उन्होंने उनकी आलोचना और निंदा करनी शुरू कर दी। मेवाड़ के राणा और उनका राज परिवार, जो सदा से परंपराओं का भक्त था। जो अपनी जटिल रूढ़ियों के साथ, बंधा हुआ था। वह इस बात को सहन न कर सका। कि राजपरिवार की एक बहू, साधारण लोगों से मिले-जुले। वह एक ऐसे महात्मा को गुरु माने, जो व्यवसाय से जूते गाँठने का कार्य करते थे।
मेवाड़ के नए शासक राणा रतन सिंह जी, जो मीराबाई के देवर थे। वे कमजोर और अस्थिर स्वभाव के थे। जनभावना तथा पुरोहितों-पंडितो और दरबारियों के प्रभाव मैं आकर। वे मीराबाई को राजघराने का कलंक मानने लगे। मीराबाई को अपने दैनिक जीवन में, अपनी ननद ऊदाबाई और राणा के हाथों बहुत यातनाएं सहनी पड़ी।
राणा ने ऊदाबाई व अन्य दो महिलाओं को, मीराबाई को सुधारने के लिए भेजा। लेकिन यह सभी मीराबाई की प्रशंसक बन गई। मीराबाई के कई ऐसे पद हैं। जिनसे पता चलता है कि राणा ने उन्हें अपने भक्ति मार्ग से हटाने के लिए, अनेक प्रयत्न किए। लेकिन राणा के कठोर वचनों और धमकियों का उत्तर, मीराबाई ने सदा कोमलता और गंभीरता से दिया। मीराबाई अपने पद में कहती हैं-
‘‘सीसोद्या राणों प्यालो म्हाँँने क्यूं रे पठायो।
भली बुरी तो मैं नहिं कीन्हीं राणा क्यूं है रिसायो।
थांने म्हाँँने देह दियो है प्यारो हरिगुण गायो।
कनक कटोरे लै विष घोल्यो दयाराम पण्डो लायो’’
मीराबाई कहती है कि राणा जी तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो। मैंने न कभी तुम्हारा अनिष्ट सोचा। न ही मैंने कोई बुरा कार्य किया है। फिर क्यों मुझे जहर का प्याला, सांप की पिटारी, कांटों की सेज भेजते हो। यह सभी चीजें अमृत के प्याले, माला और फूलों की सेज में बदल जाती है।
प्रभु ने अपनी असीम कृपा से तुमको मनुष्य जन्म दिया है, और मुझे भी। ताकि हम उसकी उपासना तथा भक्ति करें। इसलिए मैं उसकी भक्ति और उसी का गुणगान करती हूं। मीराबाई चित्तौड़ छोड़कर, मेड़ता आ गई। लेकिन उन्हें यहां पर भी संतोष नहीं मिला।
मीराबाई का वृंदावन आगमन
मेड़ता छोड़ने के बाद, मीराबाई जी वृंदावन आई। यहां वह जीव गोस्वामी से मिलने गई। जिनका सभी लोग बहुत आदर करते थे। वे भगवान कृष्ण का गोपी भाव से उपासना करते थे। जिसमें संपूर्ण सृष्टि में, कृष्ण ही एकमात्र पुरुष माने जाते हैं। उनके सभी भक्तों चाहे, वह स्त्री या पुरुष हो। सभी उनको चाहने वाली गोपियां मानी जाती है।
इसके साथ ही जीव गोस्वामी जी कठोर संयम और त्याग पूर्ण जीवन बिताते थे। इसके साथ ही, वह स्त्रियों का मुख तक नहीं देखते थे। जब जीव गोस्वामी को पता चला कि मीराबाई नामक कोई भक्त स्त्री, उनसे मिलना चाहती है। तो उन्होंने मिलने से यह कहकर इंकार कर दिया। कि उनकी प्रतिज्ञा है। वह किसी स्त्री का मुंह नहीं देखेंगे।
जीव गोस्वामी की भक्ति भावना का आधार लेकर, मीराबाई ने कहलवाया। वह समझती थी कि वृंदावन में सिर्फ कृष्ण ही एकमात्र पुरुष है। लेकिन उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ। कि यहां एक और भी पुरुष मौजूद हैं। जीवन में पहली बार, किसी स्त्री ने आत्मविश्वास के साथ, जीव गोस्वामी को उत्तर दिया था।
गोस्वामी की आंखों से, भ्रम का पर्दा हट गया। बाहर आकर उन्होंने हाथ जोड़कर, मीराबाई का अभिवादन व आदरपूर्वक स्वागत किया। मीराबाई ने कुछ साल वृंदावन में बिताए। इसके बाद वह द्वारका आ गई।
मीरा बाई की मृत्यु कैसे हुई
चित्तौड़ के पतन के बाद, कुछ सामंतों ने राणा विक्रम को, फिर से मेवाड़ की क्षत-विक्षत गद्दी पर बैठाया। लेकिन 1 साल के अंदर ही, उसके चचेरे भाई बनवीर ने उसे मार डाला। सन 1537 में बनवीर ने, स्वयं को राणा घोषित कर दिया। सन 1540 में राणा सांगा के सबसे छोटे पुत्र और मीराबाई के छोटे देवर, उदय सिंह ने कुछ राजभक्त सामंतों के सहायता से बनवीर को मार भगाया।
फिर वह स्वयं राणा बन गया। किसी समय की शक्तिशाली राज्य की राजधानी, आज एक सुबे मात्र रह गई थी। मेवाड़वासी, मीराबाई को भी भूले नहीं थे। मेवाड़ में उनके पद बड़े प्रेम से गाए जाते थे। चित्तौड़वासी अपना दुर्भाग्य को, मीराबाई पर किए गए अत्याचारों का फल मानने लगे थे। सभी को लगने लगा कि उनके पापों का प्रायश्चित तभी होगा।
जब राणा और सभी नागरिक उनसे क्षमा मांगकर, वापस ले आएंगे। राणा उदय सिंह ने इन भावनाओं का आदर किया। फिर कुछ ब्राह्मणों को, मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। मीराबाई तब न राजवधू थी। न हीं चित्तौड़ को अपना घर मानती थी। वे अपने भाग्य पर संतुष्ट थी। उनका मन अपने प्रीतम परमात्मा के चरणों में लगा हुआ था।
उन्होंने वापस चित्तौड़ लौटने के लिए, इंकार कर दिया। ब्राह्मणों ने उनसे बहुत प्रार्थना की। लेकिन वह अपने हठ से नहीं डिगी। तब ब्राह्मणों में ने घोषणा की। कि जब तक वे चित्तौड़ जाने के लिए तैयार नहीं होंगी। तब तक वह अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे। वे चित्तौड़ लौटने के लिए तैयार नहीं थी। साथ ही यह भी स्वीकार नहीं कर सकती थी। कि ब्राह्मण बगैर अन्न जल के प्राण त्याग दें।
ब्राह्मणों की हालत देखकर, उनका दिल पसीज गया। उन्होंने विवश होकर, दूसरे दिन चित्तौड़ चलने की अनुमति दे दी। कहा जाता है कि उस दिन वह द्वारकाधीश के मंदिर में प्रार्थना करने के लिए गई। दूसरे दिन सुबह जब पुजारियों ने मंदिर के द्वार खोले। तो मीराबाई वहां नहीं थी। केवल उनकी ओढनी मूर्ति के हाथों में लटक रही थी। पंडितों और पुजारियों ने यह मान लिया कि वह भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गई।
मीराबाई का भजन
हे री मैं तो प्रेमदिवानी मेरो दरद न जाणै कोय
दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्यो नही कोई॥
ना मैं जानू आरती वन्दन, ना पूजा की रीत
लिए री मैंने दो नैनो के दीपक लिए संजोये॥
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय
जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय॥
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय
गगन मंडल पर सेज पिया की, मिलणा किस बिध होय॥
दरद की मारी बनबन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय॥
हे री मैं तो प्रेमदिवानी मेरो दरद न जाणै कोय
दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्यो नही कोई॥