डॉ.एम. नारायण रेड्डी
जेआरपी-हिन्दी, एनटीएस-आई, सीआईआईएल, मैसूरु
शोध सारांश
प्राचीन काल की औरत से आधुनिक काल की औरत बेहतर है। पहले जिस समाज को पुरुष प्रधान समाज नाम से पहचाना जाता था, आज उस विचार में बहुत-कुछ बदलाव आया है। स्त्री घर के बाहर जाकर नौकरी-पेशा, काम-काज करने लगी है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र बन रही है। हमेशा पति के सामने हाथ बढ़ानेवाली स्त्री, दिमागी तौर पर पुरुष को ही कमजोर समझने लगी है। नया मजदूर वर्ग, बेकार शिक्षित युवा, आदि की अभूतपूर्व वृद्धि के कारण आर्थिक ढांचा एकदम बदल गया है। साहित्य में वर्तमान भारतीय समाज की आर्थिक परिस्थितियों से जन्म लेनेवाली स्त्री साठोत्तरी कहानियों में अर्थतंत्र का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव उसका बहुत ही स्पष्ट है। नारी की आर्थिक स्वतंत्रता उसके जीवन में आनेवाले परिवर्तन की शुरूआत है। घर-बाहर की लेन-देन जैसी व्यवहार भी करने में नारी कितनी सक्षम है, उसका खास चित्रण साठोत्तरी लेखिकाएँ अपनी कहानियों के माध्यम से दर्शायी हैं। स्त्री की दशा-दिशा को लेकर श्रीमती मृदुला गर्ग ने अपनी कई कहानियों में आवाज उठायी है।
संकेताक्षर : नारी का दमन और शोषण, दो एक फूल, मिजाज, रेशम, मीरा नाची, नारी का दाम्पत्य और दाम्पत्येतर सम्बन्ध, वितृष्णा, अवकश, हरी बिन्दी, निष्कर्ष।
नारी का दमन और शोषण : मृदुला गर्ग की कई कहानियाँ शोषित, पीड़ित तथा कुचली हुई नारी के पक्ष में उठाई गई आवाजें हैं तथा पुरुष-वर्चस्व के इस समाज में नारी की वास्तविक स्थिति के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं। उन्होंने न केवल अपनी कहानियों में निम्नवर्गीय नारी की ही दलित स्थिति अंकित की है बल्कि मध्यवर्ग तथा उच्चवर्ग की नारियों के संघर्ष और शोषण को भी चित्रित किया है। आज भी शिक्षित कामकाजी स्त्रियों को घर लौटकर थकी मांदी होने पर भी पुरुष के अफसरी रुतबों को सहना पड़ता है। मृदुला गर्ग कहती हैं— "जब स्त्री ‘मैं क्या हूँ’ पूछना छोड़कर ‘मैं इस पुरुष के लिए क्या हूँ’ पूछना शुरू कर देती है फिर तमाम जिम्मेदारी पुरुष के कंधों पर लाद दी जाती है और सैकड़ों ‘स्त्री व्यथा की मार्मिक कहानियों’ का जन्म होता है जिनमें विवाहोपरान्त स्त्री घुटती, पिसती, मरती, खपती, रोती, सहती रहती है और कभी-कभार धधकने के नाम पर, पति से पल्ला छुड़ाकर स्वतन्त्र भी हो जाती है।"1 मृदुला गर्ग के अनुसार महिलाओं की स्थिति में सुधार तभी आ सकता है जब वे अपने अधिकार को जानेगी और उस पर अमल करेंगी। मृदुला गर्ग की नारी की शोषित, पीड़ित स्थिति को अंकित करने वाली कहानियों के अन्तर्गत ‘दो एक फूल’, ‘मिजाज’, ‘रेशम’, ‘मीरा नाची’ आदि कहानियों को रखा जा सकता है।
दो एक फूल : नारी के दमन और शोषण की कहानी अति पुरानी है। मृदुला जी ने नारी के प्रति पुरुष के व्यवहार की बर्बरता, क्रूरता को साफ ढंग से देखकर उसे अपनी कहानियों में चित्रित किया है। पुरुष द्वारा दी गई यातनाओं को झेलकर भी नारी उस पुरुष को अपना ही पति मानकर न छोड़ने के लिए अभिशप्त है। इसी थीम को लेकर, ‘दो एक फूल’ कहानी का ताना-बाना बुना गया है। इसमें पूर्णरूपेण भारतीय दाम्पत्य जीवन की झलक दिखाई पड़ती है। शांतम्मा अपने पति द्वारा पीटे जाने पर भी उसको देवता समान समझती है। इसमें एक निम्नवर्ग के दम्पति को माध्यम बनाकर लेखिका ने समूचे निम्नवर्ग के दाम्पत्य जीवन की तस्वीर उतार दी है।
कर्नाटक के बागलकोट गांव की शांतम्मा कसूती में निपुण है पर वह अपनी कला को पैसों के लिए बेचना नहीं चाहती, सिर्फ मनखराब होने पर ही सुई धागा लेकर कसीदा करने बैठ जाती है। डॉ.मालती शर्मा के यहाँ झाडू-फटका, चौका बर्तन का काम करके अपनी कमाई अपने पति फकीरप्पा के हवाले करने वाली शांतम्मा भले ही नौकरानी हो परन्तु उसके अंग-प्रत्यंग से फूटने वाली अभिजात और सुसंस्कृत गरिमा से डॉ.मालती शर्मा काफी प्रभावित हो जाती हैं। परन्तु शांतम्मा का दुर्भाग्य यह है कि उसके होने वाले बच्चे जल्दी मर जाते हैं। फकीरप्पा शांतम्मा को तब बहुत चाहता है जब वह बच्चे को जन्म देती है, जैसे ही बच्चा 40 दिनों के अन्दर ही ‘सिलिफिस’ नामक बीमारी के कारण मर जाता है, फकीरप्पा शांतम्मा को बेदम पीटता है। वास्तव में यह बीमारी फकीरप्पा को एक बाजारी औरत हसनबी द्वारा लगी है। सारे टेस्ट और इलाज करवाने के बावजूद शांतम्मा उस बीमारी से मुक्त नहीं हो पाती और आखिर डॉ.मालती उसे सलाह देती हैं कि वह ऐसे आदमी के पास रहती ही क्यों है? तब भी शांतम्मा फकीरप्पा को ही अपना मरद मानती है। शांतम्मा द्वारा अपने पहले मरद द्वारा रोज-रोज शराब पीकर पीटे जाने की दु:ख भरी कहानी सुनकर डॉ.मालती शर्मा उसके बच्चे को पालने का सोचती है परन्तु उसे यह भी मालूम है कि— "अपनी मर्दानगी की निशानी उस नर संतान को शांतम्मा का पति इतनी आसानी से अपनी विरासत से वंचित नहीं करेगा।"2 इस प्रकार कहानी में निम्नवर्गीय शांतम्मा की अभिशप्त जिन्दगी का मार्मिक, कारुणिक अंकन है। क्या गलीज़ बीमारी के कारण बच्चों के मरने का सारा दोष शांतम्मा का है, क्योंकि वह स्त्री है? और क्या बाजारी औरतों की गंदगी घर में लाने का अधिकार फकीरप्पा का है? क्योंकि वह पुरुष है? ऐसे दो सवाल कहानी पढ़कर मन में उभरते हैं।
मिजाज : पुरुष इतना स्वार्थी और आत्मसम्मान की भावना से युक्त होता है कि वह अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी की नौकरी भी छुड़वा देता है ताकि पत्नी के व्यक्तित्व के सामने उसका व्यक्तित्व बौना न हो जाय, दौड़ में पत्नी आगे न निकल जाय। स्त्री की स्वतन्त्रता से ईर्ष्या करने वाले ऐसे ही एक पुरुषमानस के मिजाज को प्रस्तुत कहानी में अंकित कया गया है।
पूर्वदीप्ति शैली में रचित इस कहानी के आरम्भ में श्वेता और मानस के वैवाहिक स्नेह का परिचय होता है। श्वेता पर अपनी माँ के तेजोमय व्यक्तित्व और संस्कारशीलता का अमिट प्रभाव है। मध्यवर्गीय श्वेता के पापा की साधारण-सी नौकरी होने के कारण उसकी माँ भी नौकरी करती है जो अभी तक चली आ रही है। परन्तु नौकरी करते हुए भी उसकी माँ एक किस्म की कलाकार जैसी औरत लगती है। पर श्वेता मानस के षडयंत्र और चाल को समझ नहीं पाई थी। शादी के बाद मानस के कहने पर भावुक श्वेता ने जब नौकरी छोड़ दी, तब उसकी अनुभवी माँ को एक धक्का-सा लगा— "पागल हो गई क्या— नौकरी छोड़कर पूरी तरह इन पर निर्भर ही हो जाएगी। अस्तित्व ही मिट जाएगा तेरा।"3 मानस द्वारा नौकरी छुड़वा दिए जाने से खुश श्वेता एक दुनियादार, चौकस, गृहिणी बन गई थी यह उसका मोटापन, उसका उजड्डपन और पालतूपन जाहिर कर रहा था। उसका वह आकर्षक और सुन्दर व्यक्तित्व धीरे-धीरे सामान्य होता जा रहा था। परन्तु श्वेता की तुलना में श्वेता की माँ इस उम्र में भी एक अलग किस्म की, तराशे बदनवाली, बंधेज की साड़ी में लिपटी, कद्दावर जिस्मवाली औरत लगती थी।
ऐसी माँ जब मानस के द्वारा यह पूछा जाने पर कि क्या आप नौकरी से नहीं थकती? तब व्यंग से श्वेता की माँ कहती है— "तुम्हारे जैसा प्यार करने वाला पति नहीं मिला न, जो जबरदस्ती आराम करवा दें। इसीसे करती हूँ— नौकरी। माँ के द्वारा किए गए इस व्यंग्य का आभास दोनों को भी नहीं होता। इस प्रकार— ‘मिजाज’ शीर्षक कहानी के माध्यम से भी लेखिका ने नारी के प्रति पुरुष के शोषण की एक सर्वथा नयी दिशा का उद्घाटन किया है।"4 मानस की संकीर्ण मानसिकता का परिचय हमें मिलता है जो अपनी असामान्य व्यक्तित्व वाली पत्नी के कैरियर को ही चौपट कर देता है।
रेशम : भारतीय पुरुष प्रधान समाज तथा पितृसत्ताक परिवार पद्धति के प्रति आक्रोश जगाने वाली विवेच्य कहानी में हेमवती नामक ऐसी स्त्री की विवशता उभरकर सामने आती है जिस पर उसके पति बाऊजी द्वारा अनेक अंकुश लगाए जाते हैं। अपने पति के कठोर नियन्त्रण और अनुशासनपूर्ण व्यवहार के कारण हेमवती न तो स्वच्छन्द आचरण कर पाती है और न ही अपनी मर्जी से अच्छे वस्त्र पहन पाती है। पति की मितव्ययिता की वजह से सांसारिक कामों में दिन-भर उलझी रहने के कारण न तो उसकी हथेलियाँ रेशम की तरह बन पाती हैं और न ही वह रेशम की साड़ी पहन पाती है। ‘शहर के नाम’ कहानी-संग्रह की इस नारी समस्या प्रधान कहानी के बारे में विपिन बिहारी ठाकुर का मत है— "नारी चेतना की दृष्टि से ‘रेशम’ कहानी भी प्रभावी है, क्योंकि इसमें नारी व्यक्तित्व के दमन और विद्रोह दोनों ही भावों की अभिव्यक्ति एक साथ हुई है। इस कहानी में अधेड़ उम्र की स्त्री हेमवती के जीवन की विवश स्थितियों का अंकन मनोवैज्ञानिक रूप से किया गया है।"5
आज भी हमारे भारतीय समाज में हेमवती जैसी अनेक सहनशील स्त्रियाँ दिखाई देती हैं जो पति नियन्त्रण के कारण दमित व्यक्तित्व को लेकर जी रही हैं तथा पुरुषों के पैरों तले ‘पायदान’ के समान बनी हुई हैं। कहानी के ‘बाऊजी’ पत्नी पर एकाधिकार जताने वाले तानाशाह पति के प्रतीक हैं। हेमवती तथा उसकी दो बहुओं के माध्यम से लेखिका ने दो पीढ़ी की नारी की दशा और स्थिति का अन्तर स्पष्ट किया है। पुरुष की अहंमन्यता और अमानुषिक व्यवहार के विरुद्ध विद्रोह और कठोर निर्णय अंगीकार करने वाले नारी चरित्र की यह कहानी है।
मीरा नाची : भारत में लड़की का जन्म और जीवन बड़ा कारुणिक होता है। उसके जन्म पर माँ खुश न होकर रोती है। बचपन से ही उस पर अनेक बंधन लगाए जाते हैं, बड़ी होने पर अनेक प्रकार के कठोर नियन्त्रण उसके जीवन की हंसी और खुशी को छीन लेते हैं। स्वच्छन्द होकर वह न नाच सकती है, न पतंग उड़ा सकती है और न ही मुक्त रूप से हंस-बोल पाती है। बचपन से ही उसे कहा जाता है—“पढ़ लिख लो वरना कोई ढंग का लड़का न मिलेगा। सारी उम्र हमारी छाती पर मूंग दलोगी। पढ़-पढ़कर थक जाओ और सुस्ताने को जरा बिस्तर पर अधलेटे हो जाओ तो कहेंगे, अहदन हो जाओगी तो कौन पूछेगा ससुराल में। आजकल के लड़के पतली-छरहरी लड़की चाहते हैं, मुटा गई तो ढंग का लड़का।"6 आखिर लड़की का भी अमन होता है, भावनाएँ होती हैं, पर उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश कोई नहीं करता।ऐसी ही स्वच्छन्द होकर जीने, बातें करने और नाचने की इच्छा रखने वाली, तथा बंदिशों से मुक्ति चाहने वाली एक लड़की की कहानी है—‘मीरा नाची’। अत्यधिक कठोर नियन्त्रण और दबाव में जीने वाली लड़की के मन में स्वतन्त्रता की भावना का विस्फोट हो जाता है। आखिर सहनशीलता की भी हद होती है। क्यों वह मन को मारकर जिएँ?
नारी का दाम्पत्य और दाम्पत्येतर सम्बन्ध : लेखिका मृदुला गर्ग ने अपनी कहानियों में दाम्पत्य के इन धूपछांही रंगों को चित्रित करते हुए कहानी को एक नई समृद्धि प्रदान की है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का चित्रण उनकी कहानियों का केन्द्रीय विषय एवं ‘स्थायी शरण्य’ है। इस दृष्टि से ‘वितृष्णा’, ‘अवकश’, ‘हरी बिन्दी’ आदि कहानियाँ उल्लेखनीय हैं।
वितृष्णा : आधुनिक युग में पति-पत्नी में पारस्परिक अटूट विश्वास, मधुरता रोमांस आदि के समाप्त हो जने के कारण उनके वैवाहिक जीवन में, सम्बन्धों में दरकन, टूटन और अलगाव सा निर्माण हो रहा है। दाम्पत्य जीवन अनेक प्रकार की विकृतियों और कुंठाओं का शिकार हो रहा है। आज के दाम्पत्य जीवन में लक्षित इस विघटन के प्रमुख कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि— "पति अपनी पत्नी की भावनाओं का आदर न करता हुआ महज उसे एक उपयोगी ‘कमॉडिटी’ मानने लगता है।"7 परिणामत: दाम्पत्य सम्बन्धों में उष्मा का अभाव, ठंडापन, शुष्कता तथा असामंजस्य दिखाई देता है। इन सब बातों की परिणति दो रूपों में होती है– एक तो सम्बन्धों को ढोते चले जाने वाले निर्वाह के रूप में दूसरे तलाक के रूप में।
लेखिका की ‘वितृष्णा’ कहानी में पति दिनेश और पत्नी शालिनी दोनों के वैवाहिक सम्बन्धों की चरमराहट अभिव्यक्त हुई है। दोनों भी अनचाहे सम्बन्धों का निर्वाह करने के लिए बाध्य हैं। यह वितृष्णा क्यों निर्माण हुई? इसका कारण है दिनेश की ऑफिस के कामों में अत्यधिक व्यस्तता। अपनी पत्नी शालिनी के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता। उसकी इस व्यस्तता से संवेदनशील शालिनी कुंठित हो जाती है। पति से उसे जिस चीज की चाहत थी वह पूरी नहीं हो पाती और उसमें पति के प्रति वितृष्णा निर्माण हो जाती है। दिन भर एक रूटीन में बंधकर, चौका चूल्हा संभालते उसका जीवन नीरस हो गया है। कई वर्षों से वह घर से बाहर तक नहीं निकली है। पति द्वारा न समझे जाने की एक अकूत और अनाम पीड़ा तथा वेदना उसमें है। शालिनी की इस मनोव्यथा को न समझने वाला दिनेश जब रिटायर्ड हो जाता है, तब समझदार बनकर शालिनी का साहचर्य पाना चाहता है। दाम्पत्य जीवन की इस प्रकर की हद दर्जे की सम्बन्धहीनता और भावशून्यता, ठण्डी तटस्थता और उष्माहीनता आज के कई पति-पत्नी के सम्बन्धों में देखी जा सकती हैं। वे दिनेश और शालिनी में अपने चेहरे देख सकते हैं।
अवकाश : विवाहेतर सम्बन्धों को लेकर लिखी गई प्रस्तुत कहानी में पति-पत्नी के बीच ‘तीसरे की उपस्थिति’ के कारण बनते-बिगड़ते वैवाहिक सम्बन्धों को आंका गया है।
‘अवकाश’ कहानी की नायिका (पत्नी) दो बच्चों (मिनी-कणु) की माँ होने पर भी पता नहीं कैसे और कब अपने पति महेश को छोड़ समीर (प्रेमी) की ओर आकर्षित हो जाती है। वह महेश को छोड़कर समीर के पास चली जाना चाहती है। महेश इसे अपनी पत्नी की भावुकता समझकर उसे समझाता है और यह भी कहता है कि समीर के साथ विवाह होते ही सब रोमांस खत्म हो जाएगा। महेश के समझाने पर भी वह नहीं मानती। दो महीने अपनी माँ के घर रहने के बाद वह महेश को अपना निर्णय सुनाने आई है कि वह समीर से प्यार करती है उसे तलाक चाहिए। उसकी विडम्बना यह है कि वह पति से भी प्रेम करती है इसलिए, महेश से न मिलने की प्रतिज्ञा करने पर भी उससे मिलती रहती है। पश्चाताप की अग्नि में जलती रहती है। महेश अपनी पत्नी के प्रति उदारता दिखाता है। महेश की पत्नी को भी इस बात का एहसास है कि वह अपने पति को दु:ख दे रही है पर वह मजबूर है। प्यार के आगोश में बहने वाली नायिका अपनी मजबूरी के बारे में कहती है – "पर-पर यह कुछ और है। मेरे जीवन में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मैं जानती ही नहीं थी, प्यार किसे कहते हैं। ओह महेश, तुम नहीं समझ सकते। मैं मर चुक हूँ और दुबारा जन्म लिया है। तुम मेरी मौत का दु:ख करो, पुनर्जन्म भगवान के हाथ है।"8 यह कहते हुए वह महेश की ओर बढ़ने लगती है, उसके ओंठ फड़फड़ाने लगते हैं। महेश के द्वारा अपने जीवन को निरर्थक और असफल कहा जाने पर वह उसके प्रति करुणा से भर उठती है, आसक्त हो उठती है। फिर महेश के प्रति शारीरिक रूप से भी समर्पित हो जाती है और एक बार फिर वे दोनों आदिम पुरुष और आदिम नारी बन जाते हैं अहम को खोकर। लेकिन फिर भी उसका फैसला अटल है। "वह फौरन ही उठकर बाथरूम में चली गई। लगा धो देने से ही सबकुछ धुल जाएगा। पानी डालते डालते उसने सोचा, यह तो सर्दी में ठिठुरते हुए भिखारी पर दुशाला डाल देने जैसी बात हुई। जाना तो मुझे है ही।"9 इस प्रकार नायिका तलाक लेने का निश्चय करती है, दो वर्ष का अवकाश नहीं माँगती।
कहानी में पत्नी का व्यवहार आश्चर्य में डालने वाला है। एक ओर तलाक की बात करते हुए पति के साथ पराए का सा व्यवहार और दूसरी ओर चलते-चलते उसके प्रति शारीरिक समर्पण-नायिका की विकृत सेक्स भावना को उद्घाटित करता है। लगता है मृदुला जी ने अधिकतर सेक्स के कारण गड़बड़ा गए मानसिक रोगियों को ही अपनी कहानी का पात्र बनाया है।
हरी बिन्दी : हमारा भारतीय समाज प्रारम्भ से ही नारी पर अनेक बंधन लादता गया है। भारतीय पत्नी पति के प्रति ही एकनिष्ठ, समर्पित और प्रतिबद्ध रहे, पराए पुरुष की ओर आँख उठाकर न देखे, उसके साथ घुल-मिल कर बात न करे। पति के लिए सारे रास्ते खुले हैं वह अन्य स्त्रियों के साथ मुक्त रूप से घूम भी सकता है पर बेचारी पत्नी घर की चार दीवारी में बैठे-बैठे ऊब और घुटन का अनुभव करती है। ऐसी दशा में अगर वह किसी अन्य पुरुष से मिले, उसके साथ किसी होटल में चाय पीए तो यह सब क्या अनैतिक है? नारी की इसी मानसिकता को व्यक्त करती है– ‘हरी बिन्दी’। "लाल बिन्दी के स्थान पर हरी बिन्दी लगाना, नारी मन की परिवर्तित चेतना का प्रतीक है।"10 इस तरह एक विवाहित नारी की स्वच्छन्दतावादी मानसिकता को कहानी में दर्शाया गया है।
नायिका का ‘हरी बिन्दी’ लगाना विद्रोह का सूचक है। परम्परानुसार शादीशुदा भारतीय नारी लाल रंग की बिन्दी लगती है। परन्तु नायिका का न तो वस्त्रों के अनुसार नीली बिन्दी लगाना और न लाल बिन्दी लगाना बल्कि हरी बिन्दी लगाकर मुक्त रूप से घूमना विवाह के बंधन से मुक्ति का आनन्द ग्रहण करने के समान है। कहानी में हम देखते हैं कि पति उसकी हरी बिन्दी लगाने से ऊब चुका है और एक अजनबी उसकी हरी बिन्दी की सराहना करता है। इस तरह ‘हरी बिन्दी’ दो दृष्टियों का संकेत देती है— “एक अतीत का जो उसका पति है,और दूसरा भावी का जो पराया पुरुष है। वह अतीत में रहने की बजाय आगत में रहना चाहती है। लेकिन वह अतीत से छुटकारा नहीं पा सकती। पिक्चर देखने के बाद वह घर लौटने को विवश है।"11 अत: पुरुषीय सत्ता का प्रतिकार करती मुक्ति की आकांक्षिणी नायिका को लेखिका ने पुन: घर की ओर ही मोड़ दिया है। एक ही साथ स्त्री की स्वच्छन्दता एवं वापसी, आधुनिक एवं आर्ष मानसिकता चित्रित की है।
निष्कर्ष : मृदुला गर्ग ने कुछ समसामयिक प्रश्नों पर गहरी चिंतना भी की है। स्त्री स्वतन्त्रता की पक्षघर बनकर उन्होंने स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में सेक्स के खुलेपन पर अपने दो टूक विचार व्यक्ति करते हुए नारी पर लगे हुए अनेक बंधनों और मर्यादाओं की अर्गला को खोल दिया है। मृदुला जी स्त्री को उपभोग और प्रयोग की वस्तु नहीं भरा-पूरा जीवित व्यक्तित्व मानती है। उन्होंने जिस नारी का चित्रण अपने साहित्य में किया है वह घर परिवार की देहरी लांघकर बाहर आने वाली, स्वतंन्त्र चिंतन और निर्णय क्षमता से सम्पन्न नारी है। नर-नारी सम्बन्ध मृदुला जी के साहित्य का केन्द्रीय विषय है। नर-नारी सम्बन्ध को लेकर उन्होंने अपनी दृष्टि सम्पन्नता से बहुत ही क्रान्तिकारी चिंतन का परिचय दिया है। मृदुला जी नारी को केवल भोग्या नहीं, भोक्ता भी मानती है। उनकी नारी आत्मपीड़क नहीं है। लेखिका ने नारी को पुरुष के समकक्ष मानकर यह कहना चाहा है कि पुरुष की तरह नारी का भी अपना भरा पूरा जीवित व्यक्तित्व होता है। यदि पुरुष नारी का भोग करता है तो, नारी भी पुरुष का भोग करती है। इन क्रान्तिकारी विचारों के कारण ही उनकी कुछ कृतियाँ विवादों के घेरे में आ गई हैं।
श्रीमती गर्ग ने अपनी कहानियों में नारी समस्याओं को उद्घाटित करते हुए नारी में आने वाली परिवर्तनकारी स्थितियों का सांगोपांग विवेचन किया है। मध्यवर्ग एवं उच्चमध्यवर्ग के स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तो, उनकी कहानियों का स्थायी शरण्य है। आधुनिक युग में पति-पत्नी के बनते-बिगड़ते, दरकते-टूटते, दाम्पत्य सम्बन्धों की श्रेष्ठ कहानियाँ उन्होंने हिन्दी साहित्य को दिया है। इस प्रकार नारी का दमन और शोषण, नारी की प्रसव-पीड़ा, विदेशों में बसी भारतीया नारी की व्यथा आदि वर्ण्य विषयों को लेकर लिखी गई लेखिका की कई मौलिक और उत्कृष्ट कहानियाँ हैं।
मृदुला गर्ग ने पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन में अनेक कारणों से उपजे असंतोष, ऊब तथा एकरसता के कारण दाम्पत्य सम्बन्धों के विघटन, टूटन को तो दर्शाया है पर टूटते सम्बन्धों के कारण नारी की त्रासदी या पीड़ा को चित्रित नहीं किया है, बल्कि उनकी नारियाँ स्वच्छन्द होकर या तो दाम्पत्येतर सम्बन्ध स्थापित करती हैं, या तलाक ले लेती हैं या फिर रचनात्मक कार्यों की ओर उन्मुख हो जाती हैं जैसे— मनीषा, मनु, स्मिता, मारियान आदि। पारम्परिक भारतीय नारी की छवि उनके साहित्य में बहुत कम अंकित हुई है। उसी प्रकार यौन सम्बन्धों की असंतुष्टि को लेकर ‘नारी की भटकन’ को उनके कथा साहित्य में दर्शाया गया है।
संदर्भ संकेत
1. साक्षात्कार-जुलाई-अगस्त-1996, मृदुला गर्ग के लेख से, पृ.92
2. टुकडा-टुकडा आदमी - मृदुला गर्ग, पृ.67
3. उर्फ सैम - मृदुला गर्ग, पृ.98
4. प्रकार-अगस्त-1986, डॉ.विपिन बिहारी ठाकुर के लेख- ‘उर्फ सैम’ से, पृ.31
5. प्रकार-मार्च-1992, डॉ.विपिन बिहारी ठाकुर के लेख- ‘शहर के नाम’ से, पृ.35
6. समागम - मृदुला गर्ग, पृ.23
7. भाषा-सितम्बर-1987, डॉ.पुष्पपाल सिंह के लेख- ‘आधुनिक हिन्दी कहानी : दाम्पत्य सम्बन्ध’, पृ. 51
8. टुकडा-टुकडा आदमी - मृदुला गर्ग, पृ.45
9. सातवें दशकोत्तर कहानियों में पारिवारिक सम्बन्ध - डॉ. विद्वलदास सारडा, पृ.223
10. समसामयिक हिन्दी कहानी में बदलते पारिवारिक सम्बन्ध - डॉ. ज्ञानवती अरोड़ा, पृ.180
11. समकालीन महिला कहानीकारों की कहानी में प्रेम का स्वरूप - सरिता सूद, पृ.64
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