डॉ.एम. नारायण रेड्डी
जेआरपी-हिन्दी, एनटीएस-आई, सीआईआईएल, मैसूरु
शोध सारांश
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही नारी-उत्थान के लिए प्रयत्न शुरु होने लगे थे। समाज सुधारकों ने नारी के उत्थान के लिए शिक्षा, बाल-विवाह नियंत्रण, विधवा जीवन सुधार आदि को प्रधानता दी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी की स्थिति में काफी बदलाव आया और आज भी वह अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार निरंतर आगे बढ़ रही है। पचास-साठ तक आते-आते नारी की स्थिति में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिला। अब साहित्यकारों ने भी नारी का वर्णन उसके सौन्दर्य, शील, आदर्श आदि के रूप में न करके उसे यथार्थता के धरातल पर अपने पात्रों के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है, जिससे साहित्य में भी क्रान्ति आ गयी। मेहरुन्निसा परवेज़ ने नारी को अपनी कहानियों में प्रधानता दी है। उन्होंने नारी-जीवन के विविध आयामों को पाठकों के समक्ष उद्घाटित किया है। नारी-शोषण एवं समस्याओं पर जोर दिया है।
संकेताक्षर : नारी समस्या, बेटी को बोझ समझना, विवाह की समस्या, दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, परित्यक्त नारी, कामकाजी नारी की विडम्बनाएँ, नारी शोषण, निष्कर्ष।
नारी समस्या : स्त्री पर हो रहे अन्याय और अत्याचार का सिलसिला घर से शुरू होता है। बचपन से उस पर अनेक प्रतिबंध लाद दिये जाते हैं। विवाह पश्चात उस पर पति का वर्चस्व अधिक देखा जाता है। उसे जीती-जागती, संवेदनाओं से भरपूर मनुष्य न समझकर, सिर्फ खिलौना समझा जाने लगा है। तन और मन की स्वतंत्रता तो दूर हँसने और मुस्कुराने पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाता है। उसे अनेक यातनाओं से गुजरना पड़ता है जिसका उसके शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है। हर दिन जिन्दगी और मौत के बीच जूझने के लिए मजबूर किया जाता है। "यह निरापद ही निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ऐसी कोई भी नारी जीवित नहीं होगी जिसने अपनी पीड़ा की मुक्ति के लिए कम से कम एक बार आत्महत्या के बारे में सोचा न होगा।"1 व्यक्तित्व का अभाव, आर्थिक परतन्त्रता, राजनीतिक अवगणना, सामाजिक शोषण, दहेज-प्रथा, वेश्यावृत्ति, बाल-विवाह, विधवा-जीवन के लिए बाध्य, मानसिक शोषण, पाशविकता, बलात्कार, परपीडन-कामुक-पति द्वारा अत्याचार आदि कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिसका सामना पूरी दुनिया की स्त्रियों को करना पड़ रहा है। ऐसी समस्याओं को मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपनी कहानियों के द्वारा हमारे समक्ष रखा है।
बेटी को बोझ समझना : गरीबों के लिए बेटी कंधे पर बहुत बड़ा बोझ के समान है। उसे सपने देखने का कोई हक नहीं है। उसे अपने घर की हर स्थिति से समझौता करना पड़ता है। ‘सूकी बयड़ी’ कहानी में होरा को अपनी बड़ी बहन के लिए अपने प्यार की बली चढ़ानी पड़ती है। वह अपने सारे दुखों को अपने अन्दर दफना देती है। "बेटी तो गरीब बाप के वास्ते भारी गठरी होए नी, न ढोए जाए, न उठाए जाए।"2 लड़कियाँ बचपन से ही भेद-भावपूर्ण बरताव को सहती हुई हीन-भाव से ग्रसित हो जाती हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास की कमी पाई जाती है। माँ-बाप के इस बोझ को हल्का करने के लिए वे अपनी इच्छाओं और सपनों का गला घोंट देती हैं। माँ-बाप भी बेटी के भविष्य की चिन्ता किये बगैर ही अपना काम खत्म करके गंगा नहा लेते हैं।
विवाह की समस्या : समाज ने विवाह को लड़कियों के जीवन की मंजिल माना है। भले ही आज इस नज़रिये में कुछ बदलाव जरूर आया है लेकिन औसत भारतीय परिवारों में यही धारणा प्रबल है। बचपन से ही उसे विवाह के लिए तैयार किया जाता है। माँ-बाप के लिए यह एक विकट समस्या बनती जा रही है। अगर लड़कियाँ सुन्दर और गुणी हो तो गरीब होते हुए भी कहीं-न-कहीं रिश्ता हो ही जाता है लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो, उसके लिए लड़का ढूँढना मुश्किल हो जाता है। विवाह को इतना महत्त्व दिये जाने के कारण लड़कियों पर इसका मानसिक दबाव पड़ता है। ‘बड़े लोग’ कहानी में सूखी आपा का विवाह न हो पाने के कारण निराश है- "अम्मा कहती है, अल्लाह ने मेरा जोड़ा नहीं उतारा दुनिया में, क्या ऐसा हो सकता है? अल्लाह लूले-लंगडों का भी जोड़ा उतारता है, मेरा कैसे भूल गया।"3
लड़की का विवाह देर से होने पर, लड़की और उसके माँ-बाप, दोनों को अन्य लोगों से ताने सुनने पड़ते हैं जिससे उन्हें मानसिक-संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ता है। ‘जाने कब’ कहानी में शन्नो और उसके परिवार वालों की स्थिति कुछ इसी प्रकार की है। "शन्नो के हाथ पीले करने का कब इरादा है, भई? उम्र बढ़ रही है। इसके सामने की लड़कियाँ दो-दो बच्चों की माँ बन गई है। क्या जवानी का जिस्म अपने ही घर सड़ाकर दूल्हे को बूढ़ी हड्डियाँ ही पकडाओगे?"4 ऐसी बातें सुनकर शन्नो टूट जाती है और माँ-बाप भी अपने आपको कुसूरवार समझते हैं। लेकिन इसी आस में वे दिन व्यतीत करते हैं कि उनके भी अच्छे दिन आयेंगे।
दहेज-प्रथा : दहेज प्रथा के कारण लड़कियाँ घरवालों पर बोझ बनने लगी हैं। लड़की के जन्म से ही माँ-बाप इस चिंता में डूबे रहते हैं। अन्य अनेक समस्याओं की उत्पत्ति भी यहीं से होती है। विवाह के बाद, जिन्दगी भर के लिए माँ-बाप कर्ज में डूबे रहते हैं। ‘सूकी बयड़ी’कहानी में नीमड़ा और पत्नी मजदूरी करके घर-गृहस्थी चला रहे हैं। थोरा और होरा(बेटियाँ) का वे एक साथ विवाह कराना चाहते हैं, लेकिन इसके खर्च के लिए पैसों के तौर पर टेसुआ(बेटा) को दो साल के लिए बंधुआ मज़दूर बनाना पड़ता है। सारे घर की स्थिति ही डगमगा जाती है।
अनमेल विवाह : जिस घर में बेटी को बोझ समझा जाता है, वहाँ उसका विवाह माता-पिता किसी प्रकार निपटा देना चाहते हैं। इस उधेड़-बुन में वे कभी-कभी उम्र में काफी बडे व्यक्ति से उसका विवाह करा देते हैं। भले ही इस स्थिति में आज सुधार आयी है फिर भी समाज में यत्र-तत्र यह बात कायम है। अनमेल विवाह का तात्पर्य है जिस विवाह में वर या वधू में से किसी एक का अन्य के लायक या मुताबिक होना। इसमें किसी एक का मेल ठीक प्रकार नहीं हो पाता है। इससे दाम्पत्य जीवन सन्तुष्ट नहीं हो पाता है। ‘नंगी आँखोंवाला रेगिस्तान’कहानी में नारी का पति उससे दुगुनी उम्र का है। अधेड़ पति से नीरा को पिता जैसा स्नेह मिलता है। नीरा अपनी ही आग में सुलगती रहती है। उसकी जरूरतों को पति समझ नहीं पाता है क्योंकि, देव का यौवन बीत चुका है। नीरा को पति जैसा प्रेम देव से कभी भी नहीं मिल पाता है। उसकी स्थिति कुछ इस प्रकार थी—"उसे अपना जीवन पिंजरे में बंद तोता-मैना सा लगता, जो लोह के सींखचों में है और जिसे समय-समय पर खाना-पानी मिल जाता है और कभी-कभी मालिक की पुचकार, बस।"5
अनमेल विवाह के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से नारी पर असर पड़ता है। एक ओर वह मानसिक रूप से तालमेल नहीं बिठा पाती है वहीं दूसरी ओर शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण जिन्दगी भर तड़पती रहती है। ऐसी स्थिति में किसी तीसरे की तरफ झुकाव स्वाभाविक है और इस कारणवश दाम्पत्य जीवन की नींव हिलने लगती है।
परित्यक्त नारी : बदलते सामाजिक परिवेश के कारण सम्बन्धों का बिखराव आज हर कहीं नजर आ रहा है। दाम्पत्य जैसे आत्मीय सम्बन्धों का भी विघटन होने लगा है और इससे तलाक की संख्या बहुत बढ़ गयी है। नारी की शिक्षा, जागरूकता और आत्मनिर्भरता उसे अपनी आत्मसम्मान को दाँव पर लगाने नहीं देती है। समाज में यह भ्रम विद्यमान है कि तलाकशुदा नारी खुद अपना घर तो तोड चुकी है साथ ही दूसरे घरों को भी बर्बाद कर देना चाहती है। पुरुष वर्ग उसे हमेशा से इस्तेमाल करने की ताक में रहता है। ‘नंगी आँखोंवाला रेगिस्तान’ कहानी में देव से तलाक के पश्चात नीरा की मुलाकात अमित से होती है और वह उसे ही अपनी मंजिल समझ बैठती है। लेकिन अमित कोई भी नीरा से अपने बेटे का पीछा छुडवाना चाहते हैं। इस वजह से नीरा को हर जगह अपमानित होना पड़ता है- "अपमान, लज्जा और आँसुओं से उसका चेहरा फीका पड़ गया था। अपने में और कोठे की वेश्या में उसे कोई फर्क नहीं लग रहा था।"6 ‘ढ़हता कुतुबमीनार’कहानी में सपना के पति, राहुल का विवाहेतर सम्बन्ध है और इसलिए, वह उससे तलाक ले लेती हैं। लेकिन इस कारण उसे परिवार के लोग और समाज से अपेक्षापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। वह जिन्दगी से जूझने के लिए अकेली पड़ जाती है। ‘साल की पहली रात’ और‘आकृतियाँ और दीवारें’ कहानियों के प्रधान नारी पात्र तलाक पश्चात अपने मायके में रहते हैं। आत्मनिर्भर होने के पश्चात भी घरवालों से उन्हें उपेक्षा मिलती है।
‘प्राण प्रतिष्ठा’ कहानी के बेनिप्रसाद बहुत बड़े सन्त-महात्मा बन जाते हैं लेकिन उनकी पत्नी पर दुखों का पहाड-सा टूट पड़ता है। बेनिप्रसाद अपनी पत्नी तुलसीबाई को पूरी तरह विस्मृत कर देते हैं। अचानक वर्षों बाद वह एक प्रश्न चिह्न बनकर उनके सम्मुख आ खड़ी होती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि, उनकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह करके सुखी जिन्दगी व्यतीत कर रही थी। "आप सबके सुखी रहने का आशीष देते हैं, किंतु मुझे विपदा में छोड़कर आप भाग गए थे। आपके परिवारवालों ने मुझे अपमानित कर पीहर भेज दिया।"7 तलाकशुदा नारी को उपेक्षा, अपमान और असुरक्षा का भाव जकड़ लेता है। इस बंधन से मुक्त होने के लिए उसे खुद प्रयत्नशील होना चाहिए।
कामकाजी नारी की विडम्बनाएँ : बौद्धिक या शारीरिक क्षमता के उपयोग से, कुशल या अकुशल श्रम के माध्यम से, घर या घर के बाहर कार्य करके अर्थोपार्जन करनेवाली महिलाएँ ‘कामकाजी महिलाएँ’ हैं। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नारी ने अर्थोपार्जन के लिए घर की दहलीज़ को पार किया है। इसका कारण आर्थिक विवशता, शिक्षा का प्रसार एवं सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव है। नारी के इस बदले हुये रूप के साथ ही अनेक नई समस्याएँ भी सामने आई हैं। दुहरी जिम्मेदारी निभाने वाली कामकाजी नारी शारीरिक व मानसिक श्रम से काफी थक जाती है। उसकी जिन्दगी एक मशीन की तरह चलती है। नारी के अर्थोपार्जन से उसे तथा उसके परिवार को उच्च-जीवन-स्तर की प्राप्ति अवश्य होती है लेकिन फिर भी घर के अन्य-सदस्य घरेलू कामों में उसका हाथ बँटाने से कतराते हैं। ‘अपने अपने लोग’ कहानी में सुमन सबेरे पाँच बजे से काम पर लग जाती है। नाश्ता एवं लंच तैयार करके वह सात बजे घर से निकलती है। बेटी को स्कूल छोड़ती हुई, वह दफतर जाती है। दोपहर को घर वापस आती है। घर में दो-तीन बचों को ट्यूशन पढ़ाती है। शाम को फिर रसोई का काम संभालती है। इन सारे कामों में उसे मदद करने वाला कोई नहीं है क्योंकि, घरेलू काम की जिम्मेदारी सिर्फ बहू की मानी जाती है। "सारा काम कर रात जब बिस्तर पर लेटती तो लगता, जैसा सारी सृष्टि का चक्कर काटकर लौटी है.........दूसरे दिन फिर वही भागा-दौडी।"8 परिवार के आय के स्रोत एवं जीवन के स्तर में वृद्धि लाने के बावजूद भी कामकाजी नारी को अपनी कमाई पर अधिकार नहीं है। ‘अपने-अपने लोग’ कहानी में सुमन माँ की मदद छुप-छुपकर ही कर पाती है। उसके वेतन पर उसके पति का अधिकार है। "पत्नी से काम भी करवाते हैं और उसमें गुलामों-सा व्यवहार करते हैं। नारी को अपने कमाए रुपए पर भी उसका अपना अधिकार नहीं था...........पत्नी की कमाई पर पति का अधिकार था।"9निम्न-मध्यवर्ग में कामकाजी नारी घर के आय में वृद्धि लाती है और कभी कभी पूरे घर की जिम्मेदारी भी संभालती है। ऐसे में अगर वो विवाहित न हो तो घरवाले अपने स्वार्थ के लिए उसका विवाह नहीं कराना चाहते हैं। ‘सज़ा’ कहानी में उमा के एम.ए. कर लेने पर उसके ब्याह की बात चलने लगती है। लेकिन दहेज़ के कारण कहीं भी विवाह तय नहीं हो पाता है। घर में सभी उसके ब्याह को लेकर चिंचित हैं। इस दौरान वह किसी तरह अपने बाबूजी को मनवाकर बैंक में नौकरी करने लगती है। इसके साथ ही उसके घर की स्थिति सुधरने लगती है। इसके कारण किसी को भी उमा की शादी की जल्दी नहीं रहती और उसका विवाह एक गैरजरूरी मसला बनकर रह जाता है। पूरे दो साल के पश्चात उमा खुद ही अपनी शादी की बात को घर में उठाती है। इससे घर में जैसे कोहराम मच जाता है। उसके द्वारा जो एक बंधी-बंधायी रकम महीने की पहली तारीख को घर पहुँचती है उसे घरवाले खोना नहीं चाहते हैं। यही उमा के कामकाजी होने की त्रासदी है। ‘अकेला गुलमोहर’ कहानी में सुधा का विवाह भी उसके भैया इसलिए नहीं करना चाहते हैं क्योंकि, वह कमाती है। इस बात को लेकर सुधा के दोनों भाइयों में झगड़ा हो जाता है। "तुम कसाई हो। तुम चाहते हो हर आदमी कमाकर लाये तो खाये। इसलिए, तुमने सुधा की शादी नहीं की। सुधा दूसरे के घर चली जाएगी तो बंधे हुए दो सौ कौन लाकर देगा?"10
‘विद्रोह’ कहानी में नीना निम्न-मध्यवर्ग से है और घर की सारी जिम्मेदारी उस पर है। उसके विवाह के बारे में माता-पिता द्वारा न तो कभी सोचा गया और न किसी ने इस बारे में बात उठायी है। वह घर की आर्थिक-स्थिति सुधारने में ही पूरी जिन्दगी लगा देती है। इन समस्याओं के अध्ययन के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि इसमें अधिकतर समस्याएँ नये रूप में आज हमारे सम्मुख हैं। इसका कारण भले ही रूढ़िवादी विश्वास एवं पुरुष का अहं है। बाह्य रूप में नारी ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन आज भी औसत नारी की स्थिति को देखा जाय तो निराशा ही हाथ लगती है। सौ साल पुरानी उसकी स्थिति से कुछ ज्यादा बदलाव उसमें नहीं आया है। उदाहरण स्वरूप थोड़े से लोगों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं कि नारी को सब कुछ हासिल हो चुका है जिसके लिए उसने संघर्ष किया था। उसका संघर्ष आज भी जारी है।
नारी शोषण : नारी के प्रति हो रहे हिंसा इस दुनिया में सबसे व्यापक स्तर पर हो रहे मानव अधिकार के दुरुपयोग का परिणाम है। इसके विषय में कोई भी देश अपवाद नहीं है। लड़कियों और स्त्रियों पर उसके लिंग के कारण अगर कोई दुर्व्यवहार किया जाता है तो, वह ‘नारी शोषण’ कहलाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1993 के जनरल असम्बली में ‘नारी हिंसा विलोपन’ की घोषणा करते हुए ‘अनुच्छेद-एक’में ‘नारी हिंसा’ को परिभाषित किया है— "नारी के प्रति कोई भी प्रवृत्ति, जो लिंग आधारित हिंसा हो, जिसका परिणाम या संभावनीय परिणाम शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक हानी या पीड़ा हो, ऐसी प्रवृत्ति की धमकी, स्वेच्छा से कार्य करने की स्वतंत्रता से वंचित करना, चाहे वह सार्वजनिक या व्यक्तिगत जिन्दगी में हो, यह भी इसके अन्तर्गत है।"11 इस बात की पुष्टि ‘अनुच्छेद-दो’ में विस्तारपूर्वक दिया गया है। नैतिक मूल्यों में हो रहे गिरावट और यौन-चेतना के निरंतर बढ़ने से यह अनाचारता बढ़ती जा रही है। शोषण की प्रक्रिया इतनी प्रबल, भंयकर और व्यापक हो रही है कि आत्मविश्वास से पूर्ण सशक्त नारी भी डगमगा जाती है। नारी का सबसे ज्यादा शोषण वह पुरुष करता है जिसे वह भली-भाँति जानती है— यह आदमी उसका पति या परिवार का ही कोई अन्य सदस्य होता है। भारतीय स्त्रियाँ आज दोहरी शोषण का शिकार हो रही हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध कथाकार मृदुला गर्ग ने अपने मत को स्पष्ट किया है— "स्त्री होने की वजह से होने वाला शोषण, बलात्कार और वेश्या बनाए जाने तक सीमित नहीं है। पैदा होते ही, या बाद में पति की चिता पर उसकी हत्या होती है। खाने को उसे कम दिया जाता है और शिक्षा से वंचित रखा जाता है।"12
लड़कियों को समाज में जीने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। अगर वह जन्म ले लेती है तो, उसे जिन्दा रहने का अधिकार नहीं दिया जाता है। ‘अपनी ज़मीन’ कहानी में गोदावरी ने चार लड़कियों को जन्म दिया जिससे वह और उसकी बेटियाँ, सास के द्वारा प्रताडित होती हैं। जब उसकी तीसरी बेटी ने जन्म लिया था तब सास दो दिन तक आँचल में तंबाकू बाँधे घूमती रही थी। वह नवजात शिशु की तालु में तंबाकू रखना चाहती थी जिससे बच्ची का देहान्त हो जाय। दाई ने गोदावरी को सतर्क कर दिया था इसलिए, वह एक पल के लिए भी बच्ची को अपने से अलग नहीं करती थी। सारी रात जागकर काटती थी। अन्त में हारकर सास ने बच्ची को मारने का इरादा छोड़ दिया लेकिन उसका क्रोध गालियों के रूप में निकलने लगता है। चूल्हे की जलती लकडियों से वह लड़कियों को मारती है।
नारी को निम्न-वर्ग से भी निचली श्रेणी में रखा जाता है। जहाँ निम्न-वर्ग का शोषण सिर्फ उच्च-वर्ग ही करता है वहीं नारी का शोषण उच्चवर्ग के साथ-साथ पति, परिवार और समाज के लोग भी करते रहे हैं। वह हर जगह असुरक्षा की गिरफ्त में रहती है।
निष्कर्ष : मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपने कहानी साहित्य में, नारी-जीवन में आये अनेक मोडों को, जीवन के यथार्थ पहलुओं से जोड़कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अपने कहानी-साहित्य में उन्होंने निम्न-वर्ग, निम्न-मध्य-वर्ग के नारी पात्रों का चयन किया है। नारी के शोषण, बदलते परिवेश के साथ उसकी समस्याओं को वाणी दी है।
मेहरुन्निसा परवेज़ ने इस बात से इनकार नहीं किया है कि शिक्षा के प्रसार के बावजूद भी अनमेल विवाह, दहेज-प्रथा, पर्दा-प्रथा,विधवा समस्या, नारी शोषण आदि से नारी मुक्त नहीं हो पायी है। इसके विरोध में समाज-सुधारकों ने पिछली सदी में ही जंग शुरू कर दिया था लेकिन बदलते परिवेश के साथ समस्याओं ने अपना रूप भी बदल दिया है। नारी को भोग्या समझे जाने की मानसिकता आज पूरे शिद्दत के साथ कायम है। इसलिए, नारी के प्रति शोषण घर में ही होता था लेकिन उसका कार्यक्षेत्र के बढ़ने से उसके शोषित होने की संभावनाएँ भी बढ़ गयी हैं। समाज में व्याप्त इन अनाचारों का वर्णन लेखिका ने मर्मस्पर्शी रूप में किया है।
मेहरुन्निसा परवेज़ ने विशेषकर नारी सम्बन्धी विषयों को प्रमुखता दी है। नारी की समस्या एवं शोषण को अपनी कहानियों में उद्घाटित किया है। नारी को हर क्षेत्र में अनेक समस्याओं से गुजरना पड़ता है। यह सिलसिला घर से शुरू होकर मृत्यु तक पीछा करता है। भारतीय परिवारों में आज भी बेटों को प्रधानता दी जाती है जिसका विवरण लेखिका ने अपनी कहानियों में दिया है। दहेज़ जैसे कुप्रथा के कारण बेटी को बोझ समझा जाता है। विवाह के बाद नारी की अनेक समस्याओं को मेहरू जी ने अपनी कहानियों में अंकित किया है। जब नारी माँ बनने में असमर्थ होती है तब उसे मानसिक द्वन्द्व से गुजरना पड़ता है। उसकी इस मानसिकता को लेखिका ने अपनी कहानियों में उभारा है। नारी के प्रति रूढ़िगत विचार, अनमेल विवाह से पीढ़ित नारी की व्यथा पर मेहरुन्निसा परवेज़ ने आवाज उठायी है। विधवा नारी, परित्यक्त नारी को समाज एवं परिवार से उपेक्षा मिलती है। नारी को भोग्या समझने के कारण यौन-शोषण सर्वव्यापी हो गया है। नारी की इस दुर्गति को भी अपनी कहानियों में मेहरुन्निसा परवेज़ ने उजागर किया है।
संदर्भ संकेत
1. Women : Tradition and Culture - Malladi Subbamma, P.47
2. सूकी बयड़ी (समर-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.111
3. बड़े लोग (धर्मयुग-13 मार्च 1983), पृ.25
4. जाने कब (सोने का बेसर-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.184
5. नंगी आँखोंवाला रेगिस्तान (ढहता कुतुबमीनार-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.56
6. वही, पृ.60
7. प्राण प्रतिष्ठा (अम्मा-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.48
8. अपने-अपने लोग (अम्मा-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.149
9. वही, पृ.150-151
10. अकेला गुलमोहर (अयोध्या से वापसी-कहानी संग्रह) - मेहरुन्निसा परवेज़, पृ.94
11. United Nations General Assembly, Declaration of elimination of violence against
women. Proceedings of the 85th plenary meeting. Geneva, 20 Dec 1993; reported
in 'Population Report' series L, Number 11, Aug 2000 P.3
12. चुकते नहीं सवाल - मृदुला गर्ग, पृ.42
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