डॉ.एम. नारायण रेड्डी
जेआरपी-हिन्दी, एनटीएस-आई, सीआईआईएल, मैसूरु
शोध सार : मृदुला गर्ग ने भोगे हुए यथार्थ को अपने साहित्य में हू-ब-हू चित्रित करने का प्रयास किया है। उसके बाद धीरे-धीरे उनकी सोच का दायरा बढ़ता चला गया। अपने युगीन व्यक्ति और समाज की सहज झलक इनकी कहानियों में देखी जा सकती है। उन्होंने अपनी कहानियों में युग-जीवन को तथा युग जीवन के संदर्भ में व्यक्ति के जीवन को विभिन्न कोणों, प्रसंगों तथा स्थितियों में देखा है और भिन्न-भिन्न आयामों का चित्रण प्रस्तुत किया है। अब हम समाज को और सामाजिक संगठन को सुनियोजित करने के लिए, उसे तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- ‘उच्च’, ‘मध्य’ और ‘निम्न’ वर्ग। किसी भी नगरीय समाज को इन तीनों वर्गें की विशेषताओं तथा उनके परस्पर सह-संबंधों के सहारे में ही आंका जा सकता है। समाज जाति, धर्म, संस्कार आदि मूल समस्यात्मक विषयों से भरा-पूरा रहता है। अब हम सामाजिक चित्रण के अंतर्गत आनेवाली मृदुला गर्ग की कहानियों के विभिन्न बिन्दुओं पर विचार करेंगे।
कुंजी शब्द : सुबह भी अंधेरे से खाली नहीं, क्षुधा पूर्ति, बडतला, अलग-अलग कमरे, उधार की हवा, बेनकाब, विनाशदूत और जेब।
सुबह भी अंधेरे से खाली नहीं : यह कहानी लेखिका के आस-पास घटी घटनाओं में से एक है। समाज में कुछ घटनाएँ ऐसी घटती हैं कि छोटे-बडों तक किसी की परवाह नहीं करतीं। उसमें भी खासकर कायदा-कानून के हिसाब से सबके लिए एक ही देखा जाता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक अलग पहचान होती है। कुछ लोग आप भला, अपना घर भला सोच समझकर जीवन बिताते रहते हैं। उसी तरह से दिन काटने वाले निम्न मध्यवर्गीय एक परिवार से मिलती जुलती-सी कहानी है ‘सुबह भी अंधेरे से खाली नहीं।’ इस कहानी में पुलिस, एक निरपराध लडके को पकडकर उसे बहुत पीटते हैं। अंत में वह बेचारा जेल में ही आत्महत्या कर लेने में मजबूर हो जाता है। रात निकलकर अगली सुबह पौ फटने से पहले ही सनसनी की तरह अखबारों में यह खबर छप जाती है कि पुलिस हिरासत में एक लडके ने आत्महत्या कर ली है। यह खबर सुनते ही लोगों के बीच गुसुर-फुसुर मचलने लगी। लोगों ने जानकारी हासिल की कि यह वही लडका है जो कल पुलिस चोरी के अपराध में इसी मुहल्ले से पकडकर ले गयी थी। खाता-पीता मुहल्ले में घूमनेवाला गरीब लडका समाज के कुछ दुष्ट लोगों की नजर में चोर बन गया था। अचानक एक दिन वह लडका एक रईस के घर के पास से गुजर रहा था। वही अच्छा मौका मानकर वह रईस हार चोरी के जुल्म में पुलिस से शिकायत करता है। बेचारा लडका उन बडे दिमागों के सामने नीरस होकर सच का साबित करना चाहता था। परन्तु उसकी चीख गले के अंदर ही रूँध जाती है और पुलिस पीटकर झूठ को सच साबित करवाते हैं। वह पाखाने जाने की इजाजत लेकर अपनी पाजामे का नाडा गले में डालकर आत्महत्या कर लेता है। उसके संबंध में लेखिका के शब्दों में— "रात घर आने पर पिटाई शुरू की। आधी रात उसने अपना कसूर कबूल कर लिया, एक साथी का नाम बताया और पाखाने जाने की इजाजत मांगी। भीतर पहुँचकर पाजामे का नाडा गले में डालकर फाँसी लगा ली। बीस मिनिट तक वह बाहर नहीं निकला तो, दरवाजा तोडा गया और रोशनदान से लटकती उसी लाश बरामद हुई।"1 यह जीवन के आस-पास की कड़वी-मीठी अनुभूति है। सामाजिक धरातल पर आधारित यह लडके के मन पर चोट करने से रोकने की कहानी है। सफेद कागज जैसे मन का लडका एक झूठ बोलकर अपने जीवन का अंत कर लेता है। चाहे वह पुलिसों के सामने झूठ को सच के समान कबूल किया होगा, परन्तु खुद के मन को ग्लानी महसूसता है।
क्षुधा पूर्ति : इस कहानी में दो वक्त की रोटी के लिए बालक हर काम करने को मजबूर हो जाता है। फिर भी उसे पेट भर खाना नहीं मिलता। पेट भर खाना और आँख भर नींद करने के लिए किराये से खोली लेता है, बहुत जगहों पर नौकरी करता है। फिर भी अंत में भूखा ही रह जाता है। वह खोली छोडने से पहले यह तय करता है कि चाहे जितना कष्ट आने पर भी रोज एक हाँडी भात खाने को सोचता है। चैन की नींद सोना, मौज-मस्ती से दिन बिताना आदि सब उसके सपने ही बनकर रह जाते हैं। रबर की फैक्टरी, ढाबे, होटलों तथा दुकानों में काम करने पर भी उसे आधा पेट खाना और फुटपाथ ही नसीब हुई थी।
उस लडके के जीवन की झांकियों पर एक नजर डालती हुई लेखिका लिखती है— "रबर की चप्पलों के फीते बनानेवाली फैक्टरी में काम किया, डेढ रुपया रोज, पर पता चला कि फुटपाथ पर सो कर भी इतने पैसों में आँतों का कुलबुलाना बन्द नहीं किया जा सकता। ढाबे में नौकरी की, यह सोचकर कि इतना ढेर सारा खाना जहाँ बनेगा वहाँ उसका हिस्सा भी कुछ जरूर आएगा, मगर ढाबे का मालिक उसकी माँ से भी कडा हिसाबी था। अस्सी रुपये माहवार जो देता उसमें से खाने के पैसे काट लेता था। दो रुपयों की पूरी-सब्जी खाकर उसकी आँतों में महाभारत छिड जाता। और-और की पुकार उसे पागल बना देता।"2 बचपन में भूख बडे-से बडे को भी पागल बना देती है। बच्चे तो दिन में तीन-चार बार खानेवाले होते हैं। उन बडों से भी बच्चों की भूख अलग होती है। उनकी भूख में एक प्रकार की मिठास होती है। उन बच्चों की भूख स्वार्थी पूँजीपतियों के खिलाफ आवाज उठानेवाली है। लेखिका इस कहानी से युगीन समाज को चित्रित करने में सक्षम रही है।
बडतला : ‘बडतला’ कहानी बांगला की घाटी और भारत के बॉर्डर से सम्बन्धित है। बात कुछ आजादी के समय से निकलती हुई नजर आती है। कुछ हद तक यह कहानी भारत और बंगला के विभाजन से सम्बन्ध रखती है। देश विभाजन के समय भारत से बांग्ला की ओर निकलते निम्न-मुसलमान परिवार की कहानी है यह। जमाल और जोहरा दोनों पति-पत्नी हैं। लतीफ मियाँ बेनीपाल हाईस्कूल में अंग्रेजी मास्टर था जो बांग्ला विभाजन में भारत से निकाले गये थे, उनमें लतीफ मियाँ भी एक था।
भारत और बांग्ला के बॉर्डर पर दोनों देशों के फौजी भाईयों से तैनात पहरा लगा हुआ था। भारत में खुलेआम घर-बार जलाये जा रहे थे। उसके सम्बन्ध में लेखिका लिखती हैं— "बद्र के नीचे जमा पंद्रह प्राणियों पर उसकी निगाह बारी-बारी से घूमी। उसने देखा, ढलती रोशनी में सभी आँखें बंद किये भूत की तरह बैठे हैं। सभी तो दस-पन्द्रह मील का सफर करके आये हैं। वह खुद तो बेनापोल से चला है, बाकी तो दूर-दराज गाँवों से हुए हैं, सिंगरगच्छा तक से। और भागे कौन सीधे रास्ते से हैं? पटसन के खेतों के बीच की दलदल अटी पगडंडियों से होकर वे लोग इतनी दूर आये हैं, वो भी सीधे मनुष्य समान चलकर नहीं, रेंग-रेंगकर कभी घुटनों के बल तो कभी पेट के।"3 उन सब के साथ लतीफ मियाँ भी था। वह उन निराश बन्धुओं को सांत्वना देता है कि— "यह बनगाँव है, हिन्दुस्तान की सरहद पर। यहाँ कोई डर नहीं है।"4
इस कहानी में मृदुला गर्ग जी ने एक विशेष सामाजिक जीवन को ढूँढ निकालने का प्रयास किया है। जोहरा पेहलोटी बच्चे को जन्म देनेवाली होती है। जनाने के समय में बहुत सारी पीडाएँ होने के कारण उसका सारा बदन निस्तेज हो उठता है। सब रेफ्युजियों के कैम्प को देखने चले जाते हैं। जमाल अकेला अपनी पत्नी के पास बैठा रहता है। थोडे समय में जमाल जोहरा की साडी खोलकर पूरी ताकत के साथ जोहरा की बाहों में हाथ डालकर ऊपर उठाके पकडता है। मानो दोनों पति-पत्नी मिलकर नवजात शिशु को जन्म दे रहे हों। फिर हर कसाव के साथ जमाल का मन हल्का होता जाता है। जमाल हिम्मत करके दाँतों से ही नाल काट देता है। फिर दोनों प्यार से उस सरहद पर ही अपने बच्चे का नाम ‘जय बंगला’ रखते हैं।
यहाँ एक ओर देश-प्रेम है, दूसरी ओर डूबते सूरज और उगते नये शांत चंद्रमा जैसा पुत्र है। नया देश, नया बेटा, वह जय भारत के नाम पर जय बंगला है। जोहरा जो यातनाएँ झेली है उसके सामने डूबता सूरज भी आग-सा लगता है। उसके संबंध में लेखिका लिखती है—"जो औरत आँखों के सामने अपना घर जलता देख चुकी हो, उसे डूबते सूरज की लाली से भी डर लगने लगती है।"5 इस कहानी को लेखिका ने विभाजन पर जोर देती हुई एक शिशु के जन्म तथा एक देश का नामकरण इन दोनों को समान रूप से दिखाने का प्रयास किया है। सूक्ष्म रूप से देखा जाय तो बाप और बेटे में अंतर ही दो देशों का विभाजन समाया हुआ है। माँ-बाप के कोख से पैदाइश बेटा ‘जय बंगला’ है।
अलग-अलग कमरे : इस कहानी में बदलते जीवन मूल्यों पर प्रकाश डाला गया है। पिता नरेन्द्रदेव और पुत्र सुरेन्द्रदेव दोनों डॉक्टर हैं। पिता इन्सानियत से व्यवहार करता रहता है। पुत्र पहले फीस देख लेता है और बाद में बीमार आदमी को। यह मृदुला गर्ग की एक सशक्त सामाजिक कहानी है। डॉक्टर नरेन्द्रदेव का शरीर फालिज पडने पर भी उनके अन्दर के इन्सान और इन्सानियत पर उसका असर नहीं पडता। पुत्र को लगता है कि पिता एक बोझ है, तो पिता स्वयं अपना काम संभाल लेता है। पुत्र से कहीं दूसरा दवाखाना ढूँढ निकालने को कहता है। कहानी का पिता आदर्शों और आस्थाओं की रक्षा के लिए सक्रिय रहता है। गरीब पिता का इकलौता बेटा था- डॉ.नरेन्द्र देव। डॉक्टर बनकर गरीबों के प्रति उनके मन में बडी सहानुभूति रही थी। नरेन्द्रदेव ने अपनी संतानों को पढाया। उनके लिए ‘अलग-अलग कमरे’ वाला अच्छा खास मकान बनाया था, परन्तु उनका लडका सुरेन्द्रदेव की इन्सानियत से कोई वास्ता तक नहीं रहता। नरेन्द्रदेव के मित्र पाठक की भी बुरी हालत हो जाती है। उसे भी फालिज का दौरा बढ़ गया था। सुरेन्द्र के पिता डॉक्टर नरेन्द्रदेव भी फालिज से पीडित था इसलिए, दोनों मित्र एक साथ रहते थे। सुरेन्द्रदेव, पाठक के पास पहले फीज माँगने पर वह चला जाता है। यह सुनकर नरेन्द्रदेव को बडा दु:ख होता है। वे अपने बेटे को पाठक से मिलकर आने के लिए मजबूर करते हैं। नरेन्द्रदेव कहता है— "बुढापे में फालिज होना आम बात है। उसने लापरवाही से कहा— फीज लेकर आ जाएँगे तो चला जाऊँगा।"6
‘अलग-अलग कमरे’ में पले दोनों बच्चे बिल्कुल स्वार्थी हो जाते हैं। बेटे को अपने बीमार पिता भार-सा लगता है। पिता के बिस्तर पर पडी सफेद चादर जल्दी मैली हो जाती है तो, सुरेन्द्र उसके ऊपर रंगीन चादर बिछा देता है। उसे पता है कि पिता जी सिर्फ सफेद कपडे पहनते हैं। श्वेत चादर ही बिस्तर पर बिछाकर सोते हैं। सुरेन्द्र तो यों कहता है— "सफेद चादर रोज मैली होती है, रोज बदलनी पडती है। आखिर ऐसे कितनी चादरें रखी जायेंगी घर में।"7 प्रतीक योजना में भी मृदुला गर्ग समकालीन हिन्दी कहानीकारों में विशेष रूप से ध्यातव्य हैं। इस कहानी में डॉक्टर नरेन्द्रदेव सफेद रंग पसंद करते थे। उनके बाग में लगी बेला और मोगरा के श्वेत पुष्पों की क्यारियाँ, श्वेत गुलाब, कनेर, लिली और गुलदाऊदी जैसे फूल, उनके स्वच्छ सफेद वस्त्र, बिस्तर पर बिछा सफेद चादर, ये सभी उनके सात्विक व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। बेटा चटपटे रंग को पसंद करता है और अपने पिता के बीमार हो जाने पर, पिता के पसंद के खिलाफ उनके बिस्तर से सफेद चादर के बदले एक हरे और काले रंग की चारखानों वाली चादर बिछा देता है। यहाँ पर हरे और काले रंग की चारखानों वाली चादर बेटे सुरेन्द्रदेव की तामसी एवं अमानवीय प्रकृति का प्रतीक है।
उधार की हवा : कहा जाता है कि बुढापा व्यक्ति को बहुत कुछ सिखा जाता है। ऐसे कगार पर ला देता है जहाँ उसकी स्वतंत्रता छीन जाती है। बच्चे कितना भी ध्यान रखें, सेवाभावी हों लेकिन बूढा व्यक्ति अपने में निश्चेष्ट नहीं हो जाता और उसके बीमार हो जाने पर स्थिति इतनी विकट हो जाती है कि वह पारिवारिक सदस्यों को ही नहीं बल्कि रोग की शिनाख्त करनेवाले डॉक्टर व अस्पताली व्यवस्था को भी कोसने लगता है— "अस्पतालवालों का क्या है, उन्हें तो पैसा बनाना है। मरीज तो ऐसे हैं जैसे जाल में फँसी मछली, वह भी वरदान देनेवाली मछली।"8
मनीश और गिरीश दोनों भाई थे। गाँव की जमीन बेचकर शहर में जाकर अलग घर बसाने की इच्छा रखते थे। बाबू जी के लिए गाँव के मकान को ही काफी समझते थे। यहाँ उन बच्चों को बापू जी की कोई फिकर नहीं रहती। इस तरह सिर्फ अपने आप को लेकर सोचते रहते थे। दोनों भाई सोचते हैं— "जमीन का दाम इन पन्द्रह सालों में बीस गुना हो गया, बेच-बचाकर किसी पॉश कॉलोनी में जमीन खरीदकर मकान बनवाया जाये। दो तल्ले का मकान हो, नीचे एक भाई रहे, ऊपर दूसरा। और बाबू जी? अरे उनका क्या है किसी के भी साथ रह लें। वरना अपना वह दो कमरोंवाला पुश्तैनी मकान ही क्या बुरा है।"9 आज की नई पीढ़ी के सामने किस तरह पुरानी पीढ़ी की भावनाओं का कोई कद्र नहीं रहती, यही इस कहानी में दिखाया गया है। संयुक्त परिवार का टूटन एक प्रकार से भावनाओं के टूटन का प्रतीक बन गया है। ‘उधार की हवा’ में संबंधों की बारीकियाँ उभर कर आयी हैं।
बेकनाब : मृदुला गर्ग इस कहानी में अत्यन्त सीधी-सादी कथा को लेकर चलती हुई दिखाई देती है। शोषक और शोषित लोगों पर आधारित यह कहानी पूंजीपति, धनिक लोगों की थोडी-सी गलती या लापरवाही के कारण समाज में कितनी गंभीर समस्या का हाहाकार मच जाता है, उसी का एक चित्रण इसमें है। माधव सिंह डाकू के माध्यम से तथाकथित सभ्य समाज पर एक थूक की तरह पडती है। माधव सिंह कहता है— "कायर होने से अपराधी हो जाना ज्यादा बेहतर है। खुलेआम बुलवाकर देना। बेपर्दा काल करना।"10 माधव का यह वाक्य कहानी का मुख्य संदेश है। लुंज-पुंज सी शांतिनुमा गांधीवादी कायरता से हजार गुना कहीं बेहतर है, भगत सिंह की क्रांतिकारी दबंगता। डाकू बनाने में पूँजीवाद ही मूल कारणभूत हैं। वे लोग अपने ही स्वार्थ के लिए निम्न-मध्यवर्गीय जनांग को कायर बनाने में मजबूर करते हैं। उससे भडक-उठकर इन्सान कुछ भी करने पर तुल जाता है। इसमें ऐसे पात्र भी मिलते हैं जो बागी व डाकू नहीं बन पाते, ऐसे पात्र कुंठित होकर जिंदगी को तुच्छ मानते हैं। व्यक्तित्व की विद्रोह-वृत्ति की दृष्टि से नायक माधव भी अविस्मरणीय चरित्र सिद्ध होता है। जमीनदारी शोषण और पुलिस के दमन की प्रतिक्रिया में वह बागी बनता है और अपनी माँ के शील को कलंकित ठहरानेवाले थानेदार बेदवाफी की नृशंस हत्या करने के बावजूद भी उसका मन प्रतिशोध भावना से शांत नहीं होता। कुल मिलाकर यह कहानी समाज और पूँजीपति समाज परिवेश की विसंगतियों पर वक्तव्य देकर खामोश नहीं हो जाती बल्कि हमें आनेवाले संघर्ष से रू-ब-रू करती है।
विनाश-दूत : भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी गई कहानी एक रूपक प्रयोग है। मृदुला जी ने इस कथा के माध्यम से भोपाल गैस त्रासदी की विद्रूपता को प्रस्तुत किया है। मृदुला गर्ग के लेखन में सोच का अपना जो मिजाज है उसे समझने के लिए पाठक को मानसिक रूप से उतना ही चैतन्य और चौकस होना जरूरी है। किसी ‘ह्यूमर’ को समझने के लिए व्यक्ति में ‘सेन्स ऑफ ह्यूमर’ की प्रखरता होनी चाहिए। रूसी साम्यवाद से प्रभावित लेखिका की कहानियों में प्राय: ऐसे पात्र विद्यमान रहते हैं जो पूँजीवाद के विरोधी हैं। ‘विनाशदूत’ कहानी में इस सत्य को उद्घाटित किया गया है कि पूँजीपति अपने को सर्वेसर्वा घोषित करता है और पूँजी के नशे में प्रकृति से भी युद्ध छेड बैठता है। यह युद्ध उसके अंत का कारण भी सिद्ध हो सकता है। इसमें विश्व के शक्तिशाली देशों की स्वार्थमूलक संहारक प्रवृत्ति का विरोध है और सार्वजनिक मानवतावादी जीवन-मूल्य की प्रतिष्ठा का आग्रह भी है।
लेखिका की चिन्तन-प्रधान भाषा-रचना का स्वरूप निम्न पंक्तियों में स्पष्ट हो उठता है— "यह शिव का ताण्डव नहीं जो प्रलय में सृष्टि का बीज लिये होगा। यह अंत है, आवृत्तिहीन अंत। यह नाच मनुष्य के निर्देश पर नाचा जा रहा है, दिव्य शक्ति के निर्देश पर नहीं। उस अपूर्ण मनुष्य के निर्देश पर जो अपने को अपूर्ण जानते हुए भी पूर्ण मानने लगा है, अर्ध सत्य पर विश्वास और अर्ध ज्ञान में दम्भ जिसकी प्रवृत्ति बन चुकी है, तभी न प्रकृति के विरुद्ध युद्ध छेड बैठा है। प्रकृति ने नहीं चुना उसे वह खुद उसका संरक्षक बन गया है, प्रकृति रक्षिता हो उसके जैसे। अपने निरंकुश अहंकार से उन्मत्त वह भूल गया कि प्रकृति तभी देती है जब नतमस्तक होकर उससे माँग जाये, नहीं तो प्रहार कर उठती है।"11 यह कहानी एक प्रकार से भावात्मक निबन्ध कही जा सकती है, जो ललित निबन्ध का आस्वाद भी देती है।
जेब : गाडी में सफर करते व्यक्ति की जेब की कहानी है। अपने बीमार बच्चे के लिए दवाइयाँ लाने पिता निकलता है। गाडी में सफर करते वक्त धक्का-मुक्कि से गर्दि के संदर्भ में किसी ने उस गरीब पिता के जेब में हाथ डालता है। वह अजनबी धोखेबाज आदमी पचास रुपये का नोट अपने हाथ में ले लेता है। वह विवश भूखा पिता लार चुवाता अचानक अपने जेब में पराये पुरुष का गिलगिले हाथ को देखकर चौंक उठता है। जब वह पचास का नोट लेकर नौ दो ग्यारह हो जाता है तो, यह गरीब पिता आँखों में आँसू गिराता, मुँह से लार टपकाता, पीछा करता है। वह गिडगिडाता हुआ कहता है— "पचास का नोट उसकी जेब में पहुँच गया। प्लीज़, मैं रो दिया, मेरा बच्चा बीमार है। मुझे डॉक्टर के पास जाना है। बडी मुश्किल से उधार मिला है। वह तेजी से पलटा। मैं रोते-रोते, रटी-रटाई लाइने बोलता, उसके पीछे हो लिया।"12 इस कहानी को लेकर सावित्री परमार जी लिखती है— "एक गिलगिले स्पर्श की व्यक्त-अव्यक्त-सी बयानबाजी है। झूठ-मक्कारी, सौदेबाजी, धोखेबाजी,भूख-कर्म, बीमारी-विवशता, खुशामद-खीज और चेहरों के कई-कई अक्सों के रूप इस अमूर्तत्वयानी में मूर्त हो उठते हैं।"13 भाषा शैली में कुछ गिरावट भी इसमें आई है। स्वार्थपरक अनुभूतियों के लेसदार आये हैं। यह कहानी नाटक धर्मियों की अभावग्रस्तता और विवशता का चित्रण करने जैसे पाठक को महसूस करवाती है।
निष्कर्ष : मृदुला गर्ग जी ने अपनी कहानियों में युग-यथार्थ की पृष्ठभूमि में युग जीवन को तथा युग जीवन के सन्दर्भ में व्यक्ति के जीवन को विभिन्न प्रसंगों तथा स्थितियों में अंकित किया है। उनकी कहानियों में व्यक्ति के बाहरी और सामाजिक प्राणी के रूप में उसकी भूमिका भी दर्शाई गयी है। उनकी कहानियों में पुराने एवं रूढिगत परम्पराएँ, विचारों-विश्वासों की टूटन, नव-चेतना के उभार के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। मृदुला गर्ग ने कई विषयों को अपनी कहानियों की वर्ण्य विषय बनायी है। उन्होंने भोगी हुई यथार्थ समाज को अपने साहित्य में ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया है। उनकी कहानियों में व्यक्ति और समाज की प्राकृतिक झलक दिखाई देती है। साथ ही उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की बदलती परिस्थितियाँ और उनके प्रभावकारी तत्व एवं उनका पारस्परिक सम्बन्ध, जातियों के बीच में उत्पन्न चेतना आदि पर सहज-शैली में चित्रित किया है।
नगर परिवर्तन की स्वाभाविक आवश्यकता पर भी निश्चित रूप में उन्होंने अपनी कहानियों में अंकन किया है। सामाजिक विसंगतियों के कारण पारिवारिक व्यवस्था में आये परिवर्तन, सम्बन्ध-संवेदनाओं का सही अनुशीलन भी किया गया है। आर्थिक तनाव से परिवार में आये बंटवारे का चित्रण भी किया है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को सुनियोजित करने के वर्गों पर भी विस्तर से विचार किया गया है।
सन्दर्भ संकेत :
1. सुबह भी अंधेरे से खाली नहीं (कितनी कैदें) पृ.13
2. क्षुधा पूर्ति (कितनी कैदे) पृ.19
3. बडतला (टुकडा-टुकडा आदमी) पृ.102
4. वही, पृ.102
5. वही, पृ.105
6. अलग-अलग कमरे (ग्लेशियर से) पृ.115
7. वही, पृ.115
8. उधार की हवा (उर्फ सैम) पृ.54
9. वही, पृ.51
10. बेकनाब (उर्फ सैम) पृ.82
11. विनाशदूत (उर्फ सैम) पृ.118
12. जेब (समागम) पृ.72
13. सावित्री परम्पर-समागम की कहानियाँ-दैनिक-नवज्योति-दि. 2-2-97, पृ.7
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