Sahitya Samhita

Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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अतरंगी आशा Atrangi Aasha



सारी आशाओं को खोता चला जा रहा हूं 

खुद में ही कहीं गुम होता चला जा रहा हूं 

जीवन की इस कश्मकश में

 मैं सब कुछ खोता चला जा रहा हूं।

 

लौट आऊं फिर अपने इस अंदाज में सोचता हूं 

बचपन की फिर वही ठिठोलियां खोजता हूं 

लडू-झगडू करूं शिकायतें मगर किससे

यही सोच खुद को रोकता हूं।

 

कह रहा है वक्त अब ना लौटूंगा मैं दोबारा

 क्यों बना है तू बेपरवाह मुझे करके आवारा। 

छू ले खुद को करके काबिल मंजिल का चौबारा

 देखना तड़पते तुझे इस कदर अब नहीं मुझे गवारा।

 

क्या करूं मैं दिल में इस गूंजते शोर का

 हर पल आजमाती मुझे जिंदगी के इस दौर का। 

चमकना मैं भी चाहूं बन के तारा भोर का 

मिले तो खुदा मुझे बन के सहारा चकोर का।

 

करना चाहूं शिकायतें तो ए खुदा शिकवे बहुत हैं

 मगर देखूं शीशा तो इस खिलखिलाते चेहरे के शुक्राने बहुत है। 

कर दे अब तो तू मुझे किसी किनारे का लोगों के मुंह से

निकलते मीठे शब्दों के तीर मुझे सताते बहुत हैं।

 

कैसे रोकूं मैं इस गुजरते वक्त को

 कैसे पालूं एक पल में ताजो- तख्त को 

बढ़ती उम्र के दोष से घूरते हैं मुझे इस जमाने में

 कैसे बदलू में लोगों के मिजाज- ए- सख्त को।

 Rajan Khaira

Research Scholar, Department of English

Govt. P. G. College Bisalpur, Pilibhit. UP

Email- rajankhaira9@gmail.com